( प्रथमो cart (२) - रुद्राष्टाध्यायी - मुदकम् ‘रेत' उदकनामसु पठितम्, [ निघं० ११ १२ ] ( या अजानि ) आाकृष्य क्षिपामि श्रद्धया स्वीकृत्य फलोन्मुखीकरोग ( त्वम् ) त्वञ्च ( गर्भवम् ) रेतः श्रद्धाख्य- मुदकम् (आ अजासि ) श्रद्धयाकृष्य क्षिपसि श्रद्धयाकृष्टा देवताः कर्मफलप्रदानमवश्यं कुति ( यजु० म० २३ मं० १९ ) प्रमाणानि-गणानान्ध्वागणपतिवामह इति पत्न्यः परियन्त्यपहुचत एवास्मा एत- दतोन्ये वास्मै हुवतेऽथो ध्रुवत एवैनं त्रिः पारयान्त त्रयो वा इमेलोका एमिग्वेनं लोक- ध्रुवते । त्रिः पुनः परियन्ति षट् सम्पद्यन्ते पड़ाव ऋऋतुभिरेव धुवते ४ अप वा वतेभ्यः माणाः क्रामन्ति ये यज्ञे धुन्वनं तन्यते नवकृत्वा परियन्ति नव वै प्राणा: माणा- नेवात्मन्दधते नैस्यः प्राणा: अपक्रामन्त्याइमजानि गर्भमात्वमजामि गर्भत्रमिति प्रजा वै पशवो गर्भ: प्रजामेव पशूनात्मन्धत्ते [ श० कां० १३ अ० २ वा० २ ॐ० ४-५ ] गणानान्त्वा गणपतिं हवामह ब्रह्मणस्पत्यं ब्रह्म वै ब्रह्मणस्गतर्ब्रह्मणवेन तद्भिषज्यति [ एतरे० पं० १ कं० २१] राष्ट्रवमेधोज्योतिखे तद्राष्ट्रे दधाति [ श० का० १३ म० २ बा०२ कं० १६ ] अयं मन्त्रः मंहितायामश्वमेधमस्तावे पांठतस्त- श्वस्तुतिरस्य मंत्रस्य वाध्योऽर्थः । स च यजमानपत्नीनां परिमन्तीनां कत्रणामतो चयमिति बहुवचनान्तनास्मदो निर्देशः । सद्भावेऽपि वहीनां पत्नीनां यस्य न स्वात्पु- चोत्पादनं तेनाप्यस्य कर्त्तव्यता ज्ञायते ॥ १ ॥ " भाषार्थ- है प्रजापते गणपते | हम कूष्माण्डादि गणके मध्य में गणपतिरूपसे वा गणनीय "पदार्थोंके मध्य में स्वामीरूपसे आपको बुलाते हैं, प्यारे इष्टामैनादिके मध्य में प्रियजनों के पालक आपको बुलाते हैं, पद्मादिनिधियों के मध्य में सुखनिधिके पालक मापको हम बुलाते आशय यह कि शिघ्रशान्ति और भार्यादि प्रियजनोंके लाभके निमित्त हम आपकी स्तुति करते हैं। हे हमारे सर्वस्वधन | तुम हमारे पालक हो “अहं त्वया अजानि" आपने हमको प्र गट किया है मैं गर्म से उत्पन्न हू आप अन अविनाशी सब जगत्को गर्भद्वारा प्रगट करते दो, जीष गर्भद्वारा प्रगट होता है और आप स्वतन्त्रतासे प्रगट हुएहो, और तुमसे सब जगत् अगट होता है । १ यजुर्वेद श्रोत कर्मानुष्ठान में यह मंत्र अश्वमेघ प्रकरणाम प्रजापतिरूप अश्व- " की स्तुतिम है, इससे राजामें क्षात्रतेज और वैश्य में वैश्यत्व वृद्धिको प्राप्त होता है, और जिस सार्वभौम महीपालके सन्तान न हो अश्वमेध यज्ञसे उसके सन्तान होता है। इस अनुष्ठान में महेषी पुत्रवती होती है इस अनुष्ठान में इस कण्डिकाके पहले तीन मंत्रों से पत्नी तीन प्रद- क्षिण्ण करे, तीन प्रकार इस भांति प्रदक्षिणा करनेसे प्रजापति देवताके ध्यानसे मानो त्रिो- कीकी परिक्रमा की फिर तीन परिक्रमा करनेसे छः होती है, ऐसा करनेसे, मानो छः ऋतुओंसे समृद्धि की, फिर तीसरे मत्रसे तीन परिक्रमा करनेसे, मानो नौ प्राण मारमा में ' चारण किये जाते है, फिर वे प्राण दृढ होजाते हैं, वह जो परिक्रमा कर आया है उसके प्रभावसे पत्नीमें दृढ प्राणवाला पुत्र चक्रवर्ती होताह उस प्राणवळके सम्पा- सुन उपरान्त पत्नी 'आहमजानि०' इस मत्रार्थको घारण करै । अध्यात्म में अनापशु गर्म प्रजापशु आत्माको धारण किया जाता है, परिक्रमाके समय पत्नीद्वारा उच्चरितमंत्रायें ---
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