रुद्राष्टाध्यायी - [ द्वितीयो- पुरुष ही है, अर्थात यही प्राणिगणको देवता करते हैं जिस कारण कि प्राणिगणके भोगोंके निमित्त अपनी कारण अवस्था परित्यागपूर्वक कार्यावस्था मर्यात् जगत्को स्वीकार कर विशेष-भगवान् यदि स्वय इस प्रकार अचिन्त्यशक्तिद्वारा जगदअवस्थाको प्राप्त न हो तो यह जगत् किसीके सबम्ध में स्वर्ग और किसी के संबध में नरकरूप होजाय तो एकही वस्तु के लिये स्वर्गनरकत्वरूप विरुद्धधर्मका प्रकाश असभव है। अनीश्वरवादी कहेंगे प्रकृतिका स्वभाव है, परन्तु आस्तिकगण कहेंगे जिसको नास्तिक प्रकृतिका स्वभाव कहते हैं उसको हम ईश्वरको अचिन्त्यशक्ति कहते है ॥ २ ॥ मन्त्रः । ए॒तावा॑नस्य महिमातोज्या पश्चपूरुष || पादी॑स्य॒विवा॑भू॒तानि॑नि॒पाद॑स्या॒मृत॑ न्दिवि ॥ ३ ॥ ॐ एतावा नस्येत्यस्य नारायण ऋषिः । निच्याप्पनुष्टुपूछन्दः । पुरुषो देवता | वि० पू० ॥ ३ ॥ माण्यम् - ( एतावान्) अतीतानागतवर्तमानरूपं जगद्यावदरित सर्वेपि ( अस्य ) पुरुषस्य (महिमा) स्वकीय सामर्थ्यविशेषः न तु तस्य वास्तवं स्वरूपम् (च) ( पुरुषः अतः ) अतो महिम्नोऽपि ( ज्यायान् ) अतिशयन अधिक: (अस्य) पुरुषस्य (विश्वा) सर्वाणि ( भूतानि ) कालत्रयवर्तीनि माणिजातानि (पादः) चतुर्थाश: (अस्य) पुरुष- स्य अवशिष्टम् ( त्रिपात् ) त्रिपादस्वरूपम् (व्यस्मृतम्) विनाशरहित' सन् ( दिवि ) द्योतनात्मके प्रकाशस्वरूपे व्यवसिष्ठत इति शेषः । यद्वा त्रिपाद् विज्ञानमयानंदरूपं दिवि विद्योतने स्वमहिनि स्वर्णे द्वारे व्यातिष्ठतीत्यर्थः | यहा -योगिध्येयं तदेव त्रिपात् दिवि सत्यसंकल्पादौ गुणे स्थितमित्यर्थः ॥ ३ ॥ ★ मापार्थ- अतीत, अनागत, वर्तमान कालसे सम्बद्ध जितना जगत् है यह सब इस पुरुषकी सामर्थ्यवशेष विभूति है। वास्तविकस्वरूप नहीं है, और पुरुष तो इस महिमावाले जगत्से अतिशय अधिक है, सपूर्ण तीनकालम वर्तनेवाले प्राणिसमूह इस पुरुषका चतुर्थाश है। इस परमात्माका अवशिष्ट त्रिपात्स्वरूप विनाशरहित प्रकाशात्मक अपने स्वरूप में स्थित है । यद्यपि ( सत्य ज्ञानमनन्त ब्रह्म ) इस तैत्तिरीयारण्यकके वचन से ब्रह्मवी इयत्ता कोई निरू- पण नहीं करसकता तोमी उसकी अपेक्षा यह जगत् अतिअल्प है, इस कारण पादरूप से निरूपण किया है ॥ ३ ॥
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