पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००६

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शततमोऽध्यायः आदित्यवर्णो भुवनस्य गोप्ता अपूर्व एकः प्रथमस्तुराबाट् । हिरण्यगर्भः पुरुषो महान्वै संपद्यते वै तमसः परस्तात् चतुर्युगसहस्रान्ते सर्वतः सलिलाप्लुते | सुषुप्लुरप्रकाशां स्वां रात्रि तु कुरुते प्रभुः चतुविधा यदा शेते प्रजाः सर्वाण्डमण्डिताः । पश्यन्ते तं महात्मानं कालं सप्त महर्षयः जनलोके विवर्तन्तस्तपसा लब्धचक्षुषः | भृग्वादयो महात्मानः पूर्वे व्याख्यातलक्षणाः सत्यादीन्सप्त लोकान्त्र ते हि पश्यन्ति चक्षुषा । ब्रह्माणं ते तु पश्यन्ति महानाह्मीषु रात्रिषु सप्तर्षयः प्रपश्यन्ति सुप्तकालं स्वरात्रिषु | कल्पानां परमेष्ठित्वात्तस्मादाद्यः स पठचते स स्रष्टा सर्वभूतानां कल्पादषु पुनः पुनः । एवमावेशयित्वा तु स्वात्मन्येव प्रजायते अथात्मनि महातेजाः सर्वमादाय सर्वकृत् । ततः स वसते रात्रि तमस्येकार्णवे जले ततो रात्रिक्षये प्राप्ते प्रतिबुद्धः प्रजापतिः । मनःःसिवृक्षया युक्तं सर्गाय निदधे पुनः एलोवृत्ते उपशान्ते प्रजापतौ । ब्रह्मनैमित्तिके तस्मिन्कल्पिते वै प्रसंय ६८५ "" ॥१८७ ॥१८८ ॥१८६ ॥१ ॥१९१ ॥१६२ ॥१६३ ॥ १६४ ॥१६५ ॥१६६ अनुपम तेज सबको अभिभूत करनेवाले महान् अंधकार रूप अज्ञान से परे, हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्मा स्थित रहते है । महामहिमामय भगवान् उस समय जबकि एक सहस्र बार चारों युग व्यतीत हो जाते हैं, समस्त जगन्मण्डल जलराशि में डूब जाता है। शासन करने की इच्छा से अपनी महारात्रि की कल्पना करते हैं, जो महान् अंधकार से पूर्ण रहती है ।१८६-१८८२ जिस समय चारों प्रकार की प्रजाओं को उस विशाल अण्ड में परिणत करके ( सब का संहार करके ) महात्मा प्रजापति ब्रह्मा शयन करते हैं। उस समय उनको केवल सप्तर्षिगण देखते रहते हैं । वे भृगु आदि महात्मा ऋषिगण उस समय जनलोक में निवास करते हैं, परम तपस्या के फलस्वरूप उन्हें दिव्य चक्षु की प्राप्ति हुई रहती है । इनके विस्तृत लक्षणों की चर्चा पूर्व प्रसंग में कर चुका हूँ | ये महात्मा गण अपने दिव्यनेत्रों से सत्यादि सातों लोकों को देखते रहते हैं। भगवान् ब्रह्मा का दर्शन उन्हें महाबलशाली रात्रियों में होता है | १८६-१६१। अपनी रात्रि के आने पर ब्रह्मा जिस समय सुषुप्तावस्था में स्थित रहते हैं, उस समय सातों ऋषि उन्हें देखते हैं | समस्त कल्पों के अन्त में एक मात्र भगवान् ब्रह्मा ही शेष ( परमेष्ठी ) रहते हैं, अतः उन्हें आद्य ( सर्वप्रथम ) कहा जाता है । सब कुछ करने घरनेवाले महान् तेजस्वी भगवान् ब्रह्मा अपनी रात्रि में आत्मा में सबको समेट कर महान एकार्णव जगत् में, जब कि चारों ओर घोर अन्धकार विद्यमान रहता है, निवास करते हैं । तदनन्तर जब रात्रि व्यतीत हो जाती है तब वे जाग्रत होते हैं, और सृष्टि करने की इच्छा से पुनः मन का संयोग करते हैं । १६२-१६५। इसी प्रकार ब्रह्मा के नैमित्तिक प्रलय में प्रजापति के उपशान्त एवं समस्त लोकों फा०-१२४