पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८१

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१०६० वायुपुराणम् उद्दिष्टो वेदवचनैविशेषो ज्ञायते कथम् । श्रुतेर्वाऽर्थोऽन्यथा वोध्यः परतस्त्वक्षरादिति श्रुत्यर्थे संशयापन्नो व्यासः सत्यवतोसुतः | विचारयामास चिरं न प्रपेदे यथातथम् सूत उवाच विचारयन्नपि मुनिर्नाssप वेदार्थनिश्चयम् । वेदो नारायणः साक्षाद्यत्र मुह्यन्ति सूरयः तदाऽपि महतीसातिं सतां हृदयतापिनीम् । पुर्नविचारयामास कं व्रजामि करोमि किम् पृच्छामि न जगत्यस्मिन्सर्वज्ञं सर्वदर्शनम् | अज्ञात्वाऽन्यतमं लोके संदेहविनिवर्तकम् मेरोः कुरिणों गत्वा चचार परमं तपः । यत्र कार्तस्वरस्फूर्जज्ज्योत्स्नाजलैनिरन्तरम् सदा प्रबाधते विष्वक्तमः स्तोमं दृशंतुदम् । चकास्ते यत्र परमं कान्तारमतिसुन्दरम् नानाद्रुमलताकुब्जकूजत्पक्षिनिनादितम् । क्षुत्पिपासाभयकोधतापग्लानिविर्वाजतम् जलाशयेर्बहुविधैः पद्मिनोखण्डमण्डितैः । जातरूपशिलानद्धतटसंचारपक्षिभिः ॥५६ ng - ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ परे कोन है जिसका यशोगान श्रुतियाँ सर्वदा करती हैं। वेद वचनों से जो उद्दिष्ट है वह विशेष किस प्रकार से ज्ञात हो सकता है ? अथवा श्रुति के 'परतस्त्वक्षगत्' इस वचन का अन्यथा अर्थ किसी प्रकार का जानना चाहिये । श्रुति के उक्त वचन के अर्थ निर्धारण में संवायाविष्ट सत्यवती सुत उक्त प्रकार से बहुत देर तक विचार करते रहे किन्तु उसके तत्त्वनिश्चय तक नही पहुँच सके ।५३-५७॥ सूत बोलेः— ऋषिवृन्द ! इस प्रकार बहुत देर तक विचार मग्न रहने पर भी व्यास जी वेदार्थ निश्चय में असफल रहे । वेद साक्षात् नारायण का स्वरूप है, जिसमें बड़े बड़े विद्वान् भो मोह प्राप्त हो जाते हैं | ऐसा जानते हुए भी व्यास देव हृदय को आन्दोलित करनेवाली बहुत बडो चिन्ता से ग्रस्त रहे, और पुनः बराबर सोचते रहे कि कहाँ जाऊँ और क्या करूँ ? इस लोक में हमारे इस सन्देह को निवृत्त करने वाला सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ कोई नहीं है, जिससे अपने सन्देह को दूर करूँ | ऐसा निश्चय कर वे सुमेरु पर्वत की सुन्दर गुफा में जाकर तपस्या करने में निरत हो गये । उस गुफा मे यद्यपि आँखो को कष्ट देने वाले घोर अन्धकार का समूह चारों ओर से व्याप्त हो रहा था, फिर भी सुवर्ण की शिलाओं की चमकीली ज्योत्स्ना राशि निरन्तर शोभायमान हो रही थी। वहाँ एक परम रमणीय बहुत बड़ा वन्य प्रदेश था ।५८-६२ जिसमें विविधप्रकार के वृक्षों और लताओं के कुञ्जों में पक्षियों के कलरव हो रहे थे । उस मनोहर वन्य प्राप्त मे प्राणी क्षुधा, पिपासा, भय, क्रोध, सन्ताप, ग्लानि आादि मानसिक कष्टो से मुक्त हो जाता था | कमलिनियों के समूहों से सुशोभित अनेक प्रकार के जलाशय वहाँ की शोभावृद्धि कर रहे थे, उन जलाशयों के तट पर जडो हुई सुवर्ण की शिल्मों पर विचरण करनेवाले पक्षियों के प्रतिविम्व स्पष्ट दिखाई पड़ते थे | कमल वनों