पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११३५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१११४ वायुपुराणम् ( : अब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवाः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् | आब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः | माता पितामही चैव तथैव प्रपितामही मातामहस्तत्पिता च प्रमातामहफादयः । तेषां पिण्डो मया दत्तो ह्यक्षय्यमुपतिष्ठताम् मुष्टिमात्रप्रमाणं च आर्द्रासलकमात्रकम् । शमीपत्रप्रमाणं वा पिण्डं दद्याद्गयाशिरे || उद्धरेत्सप्त गोत्राणि कुलानि शतमुद्धरेत् पितुर्भातुः स्वभार्याया भगिन्या दुहितुस्तथा । पितृष्वसुर्मातृष्वसुः सप्त गोत्राः प्रकीर्तिताः चतुर्विंशतिविशव षोडश द्वादशैव हि । रुद्रादिवसवश्चैव कुलान्येकोत्तरं शतम् नाऽऽपवाहनं न दिग्बन्धो न दोषो दृष्टिसंभवः । न कारुण्येन कर्तव्यं तीर्थश्राद्धं विचक्षणः पिण्डासनं पिण्डदानं पुनः प्रत्यवनेजनम् । दक्षिणा चान्नसंकल्पं तीर्यश्राद्धे स्वयं विधिः अस्मत्कुले मृता ये च गतिर्येषां न विद्यते । आवाहिण्ये तान्सर्वान्दर्भपृष्ठे तिलोदकैः ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६, ॥३० लेकर स्तम्ब तक जो भी देव, ऋषि, पितर एवं मानव गण हैं, माता मातामह प्रभृति हमारे पितर गण है, वे इस जल दान से संतुष्ट हो । सातों द्वीपों में निवास करने वाले, करोड़ों से भी अधिक कुलो में उत्पन्न होने वाले ब्रह्म लोक से इस लोक तक सर्वत्र विद्यमान उन्ही लोगों को तृप्ति के लिए यह तिल मिश्रित जलाञ्जलि है |२१-२२॥ पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामही, तथा प्रपितामही, मातामह तथा उनके पिता, प्रमातामह प्रभृति - जो भी हमारे पूर्व पुरुष हैं, उन्हीं लोगों के लिए मैं यह पिण्डदान कर रहा हूँ, यह अक्षय रूप में उन्हें सन्तुष्ट करे ।' अपनी मुट्ठी भर का अथवा हरे आँवले भर का अथवा शमो के पत्ते जितना बड़ा पिण्ड गयाशिर पर प्रदान करना चाहिये । ऐसे पिण्डों को जो व्यक्ति प्रदान करता है वह अपने सात गोत्रों एवं सौ कुल पुरुषों का उद्धार करता है | २३-२५॥ पिता, माता, अपनी स्त्री, बहिन, पुत्री, फूआ और मौसी- ये सात गोत्र कहे जाते हैं । चौबीस, वीस, सोलह, वारह, ग्यारह, सात और आठ इतने पिण्ड दान क्रमशः करने चाहिये । इनके करने से एक सौ एक कुलों का उद्धार होता है | बुद्धिमान् पुरुषों को तो श्राद्ध में आवाहन, परदा, शूद्रादिकों के देखने से उत्पन्न होने वाले दोष को न मानना चाहिये, इसी प्रकार किसी प्रकार की कातरता अथवा करुणा भी न करनी चाहिये |२६-२८। तीर्थ श्राद्धों मे मुख्पतया इन्ही विधियों का पालन होना चाहिये, पिण्ड का आसन, पिण्डदान, प्रत्यवनेजन दक्षिणा तथा अन्न सङ्कल्प | पिण्डदान के पूर्व ऐसा सङ्कल्प करना चाहिए कि अपने कुल में उन सभी मृतकों को, जिनकी कही भी गति नहीं हुई, इस कुशासन पर तिलमिश्रित जलदान के द्वारा मैं आवाहित कर रहा हूँ, अपने नाना के कुल में मरे हुए उन सभी लोगो को

इत आरभ्य - आर्द्रामलकमात्रकमित्यन्तं ग्रन्थव्यत्यासः ख. पुस्तके |

-