पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३३

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११४ वायुपुराणम् २० ॥२१ २२ यथा द्विप इवारण्ये मनुष्याणां विधीयते । प्राप्यते वाऽचिरादेवाङ्कुशेनेव निवारितः एवं ज्ञानेन शुद्धेन दग्धबीजो ह्यकल्मषः । विमुक्तबन्धः शान्तोऽसौ मुक्त इत्यभिधीयते वेदैस्तुल्याः सर्वयज्ञक्रियास्तु यज्ञे जप्यं ज्ञानिनामाहुरग्रम् । ज्ञानाद्धयाने सङ्गरागव्यपेतं तस्मिन्प्राप्ते शाश्वतस्योपलब्धिः दमः शमः सत्यमकल्मषत्वं मौनं च भूतेष्वखिलेष्वथाऽऽर्जवम् । अतीन्द्रियज्ञानमिदं तथाऽऽर्जवं प्राहुस्तथा ज्ञानविशुद्धसत्त्वाः समाहितो ब्रह्मपरोऽप्रमादी शुचिस्तथैवाऽऽत्मरतिजितेन्द्रियः। समाप्नुयुर्योगमिमं महाधियो महर्षयश्चैवमनिन्दितामलाः २३ ॥२४ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते शौचाचारलक्षणनिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः ।१६।। में दग्धं बीज होकर निष्पाप और शन्त हो जाता है । कर्म वन्धन से मुक्त होने पर वही जीव मुक्त पदवी को प्राप्त करता है ।१६-२१। वेद की हो तरह सम्पूर्ण यज्ञक्रियायें हैं और यज्ञों में जप ही अनियों द्वारा श्रेष्ठ कहा गया है। ज्ञान से सङ्गरागरहित ध्यान श्रेष्ठ है । इस ध्यान को प्राप्त करने से ही नित्य वस्तु की उपलब्धि होती है । शुद्धसत्त्व ज्ञानी कहते है कि, शम, दम, सत्य, निष्पापत्व, मौन, सम्पूर्ण भूतों पर दया और सरलता ही अतीन्द्रिय ज्ञान को उम्पन्न करने वली है । जो समाधि तपर, अप्रमादी, ब्रह्मनिष्ठ, शुचि, जितेन्द्रिय और आत्मरति करने वाले साधु है, वे ही इस योग को प्राप्त करते है । इसी प्रकार अनिन्दित और निर्मल आशय वाले महामति महषिगण ने इस योग को प्राप्त किया है ।२२२४॥ श्री वायुमहापुराण में शौचाचारलक्षणनिरूपण नामक सोलहब अध्याय समाप्त ।।१६।।