पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१६२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

त्रयोविंशोऽध्यायः १४३ तैश्वाट्टहासः सुमहान्हुंकारश्चैव पुष्कलः । नमस्कारश्च सुमहान्पुनः पुनरुदीरितः ३२ ततो वर्षसहस्रान्ते योगात्तत्पारमेश्वरम् । उपासित्वा महाभागाः शिष्येभ्यः प्रददुस्ततः ॥३३ योगेन योगसंपन्नाः प्रविश्य मनस। शिवम् । अमलं निर्गुणं स्थानं प्रविष्टा विश्वमीश्वरम् ।३४ एवमेतेन योगेन ये चाप्यन्ये द्विजातयः। स्मरिष्यन्ति विधानज्ञा गन्तारो रुद्रमव्ययम् ३५ ततस्तस्मिन्गते कल्पे झूठणरूपे भयानके । अन्यः प्रततः कल्पो विश्वरूपस्तु नामतः ३६ विनिवृत्ते तु संहारे पुनः सृष्टे चराचरे। ब्रह्मणः पुत्रकामस्य ध्यायतः परमेष्ठिनः ॥३७ प्रादुर्भूता महानदा विश्वरूपा सरस्वती। विश्वमाल्याम्बरधरं विश्वयज्ञोपवीतिनम् ३८ विवोष्णीषं विश्वगन्धं विश्वस्थानं महभुजम् । अथ तं मनसा ध्यात्वा मुक्तात्मा वै पितामहः ॥३६ ववन्दे देवमीशानं सर्वेशं शंकरं प्रभुम् । ओसीशान नमस्तेऽस्तु महादेव नमोऽस्तु ते ॥४० एवं ध्यानगतं तत्र प्रणमन्तं पितामहम् । उवाच भगवानीशः प्रीतोऽहं ते किमिच्छसि ४१ ततस्तु प्रणतो भूत्वा वाग्भिः स्तुत्वा महेश्वरम् । (*उवाच भगवान्ब्रह्मा प्रातः प्रीतेन चेतसा ॥४२ उनका मुंह भी काला थाथा । उन कुमारों के ने महान् हुकार के साथ अट्टहास किया और बारम्बार नमस्कार शब्द का उच्चारण किया ।३०३२ उन महाप्रभुओं ने योगबल से सहस्र वर्ष तक परमेश्वर की उपासना की और उस योगरहस्य को शिष्यों को दे दिया। योगसम्पन्न होकर उन कुमारों ने योग द्वारा मन ही मन शिव का ध्यान करते-करते विश्वेश्वर के निर्मल और निर्गुण स्थान में प्रवेश किया । इसी प्रकार इस योगविधान से जो दूसरे भी द्विजातिगण विधानज्ञ होकर रुद्र का स्मरण करेगे, वे शाश्वत स्थान में गमन करेगे । ३३-३५ उस भयानक कृष्णकल्प के बीत जाने पर दूसरा विश्वरूप नामक कल्प हुआ । कल्पान्त कालीन संहार कार्य के समाप्त हो जाने और सृष्टि रचना के पुनः आरम्भ होने पर परमेष्ठी ब्रह्मा पुत्र की कामना से ध्यान करने लगे ।३६३७उसी समय महानाद करने वाली विश्वरूपा सरस्वती प्रादुर्भूत हुई । पितामह ने योगासक्तचित्त से विश्वमाल्य और विश्ववसनधारी, विश्वयज्ञोपवीती, विश्वोष्णीपर्धरी, विश्वगन्धी, विश्वस्थ, महाभुज, सर्वगामी, सर्वेश्वर ईशान देवका मन ही मन ब्यान करके वन्दना की और कहा- महादेव ! तुम्हें मेरा नमस्कार है ।३८-४० इस प्रकार ध्यानपरायण पितामह के प्रणाम ईशान ! करने पर भगवान् ईशान ने कहा--"हम आपसे प्रसन्न है, यया चाहते हैं कहिये ?" तब ब्रह्मा ने प्रणत होकर महेश्वर की स्तुति की और अयन्त प्रसन्न चित्त से बोले-"देव! आपका जो यह विश्वगामीविश्वेश्वरः ,

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ख. घ. पुस्तकयोर्नास्ति ।