पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२४५

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२२६ वायुपुराणम् दक्षयज्ञविनाशार्थं संप्राप्तं विद्धि मामिह । वीरभद्र इति ख्यातं रुद्रकोपाद्विनिर्गतम् १६४ भद्रकाली च विज्ञेया देव्याः क्रोधाद्विनिर्गता । प्रेषिता देवदेवेन यज्ञान्तिकनिहऽऽगत ॥१६५ शरणं गच्छ राजेन्द्र देवं तं त्वमुमापतिम् । वरं क्रोधोऽपि रुद्रस्य वरदानं न देवतः १६६ वीरभद्रवचः श्रुत्वा दक्ष धर्मभृतां वरः। तोषयामास देवेशं शूलंपाणि महेश्वरम् १६७ प्रदुष्टे यज्ञवाटे तु विनुतेषु द्विजातिषु । तारामृगक्षये दीप्ते रौद्रं भीममहानले ॥१६८ शूलनिभिन्नवदनैः कूजद्भिः परिचारिकैः। निखातोत्पाटितैर्युपैरपविद्धेर्यतस्ततः १६६ उत्पतङ्कः पतद्भिश्च गृधैरामिषगृध्नुभिः । पक्षपात विनिघूनैः शिखाशतनिनादितैः १७० प्राणापानौ संनिरुध्य ततः स्थानेन यत्नतः। विचार्य सर्वतो दृष्टि बहुदृष्टिरमित्रजित् १७१ सहसा देवदेवेशस्त्वग्निकुण्डादुपागतः। चन्द्रसूर्यसहस्रस्य तेजः संवर्तकोपमम् १७२ प्रहस्य चैनं भगवानिदं वचनमब्रवीत् । नष्टस्तेऽज्ञानतो दक्ष प्रीतिस्ते मयि सांप्रतम् १७३ स्मितं कृत्वाऽब्रवीद्वाक्यं ब्रूहि किं करवाणि ते । आवितं च समाख्याय देवानां गुरुभिः सह ॥१७४ तमुवाचाञ्जल कृत्वा दक्षो देवं प्रजापतिः । भीतशङ्कितवित्रस्तः शबष्पददनेक्षणः १७५ देवताओं को देखने के लिये ही आये है ।१६३। हम तो दक्ष यज्ञ का विनाश करने के लिये यहाँ आये हैं । हमारा नाम वीरभद्र है और हम महादेव के कोप से उत्पन्न हुए है १६४। यह भद्रकाली है जो देवी के क्रोध से उत्पन्न हुई है और महादेव द्वारा यह भी इस यज्ञभूमि की ओर भेजी गई है ।१६५राजेन्द्र ! आप उन्ही उमापति की शरण मे जाइये, जिनका क्रोध भी अन्य देवों के वरदान से उत्तम है ।१६६। वीरभद्र के वचन को सुन कर धर्मनिष्ठ दक्ष ने देवाधिदेव शूलपाणि महेश्वर को प्रसन्न किया ।१६७। उस समय यज्ञभूमि नष्ट भ्रष्ट हो चुकी थी, यज्ञ में दीक्षित द्विजातिगण भाग चुके थे, यक्षीय महाअनल बुझ चुका था, चोट त्रिशूल से खये हुए अनुचरगण इधर उधर कराह रहे थे, गाड़ा गया यज्ञयूप उखड़ा हुआ पड़ा था, मांस के लोभी गृध्र नोचे-ऊपर मंडरा रहे थे और जोरजोर से डैने ( पंख ) हिला रहे थे तथा शुड के बँड गीदड़ चिल्ला रहे थे ।१६८१७०। उसी समय शत्रु को | दमन करने वाले बहुदृष्टि देवदेवेश प्राणापान को यत्नपूर्वक . अपने स्थान में रोक कर ऑर इधर-उधर देखते हुए सहसा अग्निकुण्ड से बाहर नि ल आये । संवर्तकतुल्य हजार सूर्य के समान तेजोमय शंकर ने हँस कर कहा—दक्ष, तुम्हारे अज्ञान से यज्ञ नष्ट हुआ। अब तुम्हारी प्रीति मुझसे हुई । कहो, अब तुम्हारे लिये मैं क्या कहें ? ॥१७१-१७३३। देवों और गुरुओं के साथ , आपबीती को सुनाकर दक्ष प्रजापति ने जिनकी आंखों से आँसू टपक कर गालों पर आ रहे थे और वे भय तथा सन्देश से घबराये हुये थे, दोनों हाथ जोड़ कर महादेव से कहा १७४-१७५। अगर भगवान् हम पर प्रसन्न हैं. हम