पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२६२

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एकत्रिंशोऽध्यायः २४३ ४४ तिथीनां पर्वसंधीनां पूणिमादर्शयोरपि। योनिनशाकरो यश्च योऽमृतात्मा प्रजापतिः ।।४ ४० तस्मात्स पितृमान्सोस ऋग्यजुश्छन्दसात्मकः। प्राणापानसमानानैव्र्यानोदानात्मकैरपि ४१ कर्मभिः प्राणिनां लोके सर्वचेष्टप्रवर्तकः। प्राणापानसमानानां वायूनां च प्रवर्तकः ४२ पश्वानां चेन्द्रियमनोबुद्धिस्मृतिजलात्मनाम् । समानकालकरणः क्रियाः संपादयन्निव ४३ सर्वात्मा सर्वलोकानामावहः प्रवहादिभिः। विधाता सर्वभूतानां क्षमी नित्यं प्रभञ्जनः योनिरग्नेरपां भूमेरवेश्चन्द्रसमश्च यः । वायुः प्रजाप्रति घृतं लोकात्मा प्रपितामहः ४५ प्रजापतिमुखैर्देवैः सभ्यगिष्टफलाथभिः। त्रिभिरेव कपालैस्तु अस्बकैरोषधिक्षये । इज्यते भगवन्यस्मतस्त्र्यम्बक उच्यते ४६ गायत्री चैव त्रिष्टुप्च जगती चैव या स्मृता । त्र्यम्बका नामतः प्रोक्ता योनयः सवनस्य तः ॥४७ ताभिरेकत्वभूताभिस्त्रिविधाभिः स्ववीर्यतः । त्रिसाधनपुरोडाशस्त्रिकपालः स वै स्मृतः इत्येतत्पञ्चवर्ष हि युगं प्रोक्तं मनीबिभिः। यच्चैव पवधात्मा वै प्रोक्तः संवत्सरो द्विजैः । सैक षट्कं विजज्ञेऽथ मध्वादीनृतपः किल। ऋतुपुत्रार्तवः पञ्च इति सर्गः समासतः । इत्येष पवमानो वै प्राणिनां जीवितानि तु ५० ४८ ४ पर्वसन्धि, पूणिमा, अमावास्या के ये ही उत्पादक, निशाकर और प्रजापति हैं ।३८-४०। इसीलिये ये सोम पितृमान् एव ऋक्, यजुर्वेद के स्वरूप है । ये प्राण, अपान, समान उदान और व्यानात्मक कर्म द्वारा लोक मे निखिल प्राणियो की सम्पूर्ण चेष्टाओं के प्रवर्तक है । ये ही प्राण, अपान और समान वायु के प्रवर्तक हैं ।४१-४२॥ इन पाँचों के अर्थात् इन्द्रिय, मन बुद्धि, स्मृति और जल के यथायल पोषण कर्ता और इनकी क्रियाओं के सम्पादक हैं । ये प्रभंजन सर्वात्मा हैं । आवह प्रवह आदि के द्वारा सब लोकों के तथा सब भूतों के विधाता एवं पृथ्वी को धारण करने वाले है । ये ही प्रभंजन जल, अग्नि, भूमि, रवि और चन्द्रमा के उत्पादक है । ये ही वायु प्रजापति लोयात्मा और प्रपितामह है ।४३-४५। प्रजापति आदि देवगण अपने अभीष्ट फल को पाने के लिये ओषधियों के क्षय हो जाने पर त्रिकपाल और त्र्यम्बका द्वारा भगवान् की पूजा करते हैं इसलिये वे त्र्यम्बक कहलाते है । गायत्री, त्रिष्टुप् और जगती त्र्यम्बका नाम से ख्यात है, जो यज्ञयोनि या सवन की उत्पदिका है। ये ही तीनों छन्द जब अपने पराक्रम से एकत्र हो जाते हैं, तब वे ही त्रिसाधन, पुरोडाश और त्रिकपाल कहे जाते है ।४६-४८। विद्वानों ने इस प्रकार पाँच वर्षों का युग कहा है । विप्रो ने जो इन पाँच प्रकार के संवत्सरों को बताया है, उनमें प्रत्येक वसन्त आदि छः ऋतुओं वाले है ।४६। अऋतुपुत्र, आतंव गण पॉव प्रकार के है। संक्षेप में यही कथा है । यह वायु प्राणियों के जीवन को काल रूप से संहार करती हुई नदी