पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२८४

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चतुस्त्रिशोऽध्यायः २६५ ॥५ कणिका तस्य पद्मस्य समन्तात्परिमण्डला। योजनानां सहस्राणि नवतिः षट् प्रकोर्तिताः । चत्वारश्चाप्यशीतिश्च अन्तरा (र) न्तरधिष्ठिताः। ५८ त्रिशतं च सहस्राणि योजनानां प्रमाणतः । तस्य केशरजालानि विस्तीर्णानि समन्ततः शतसाहस्त्रिकामाया साशीतिपृथुलायता । चत्वारि तस्य पत्राणि योजनानां चतुर्दशम् ६० तत्र याऽसौ मया पूर्व कणिकेत्यभिशब्दिता । तां वण्र्यमानामेकाग्राः समासेन निबोधत ६१ शताश्रिमेनं मेनेऽत्रिः सहस्रश्रिमृषिभृगुः । अष्टश्रिमेनं सावणश्चतुरत्र तु भागुरिः ।।६२ च (व) षयिणिस्तु सामुद्रं शरावं वैय गालवः। ऊर्धवेणीकृतं गणैः क्रोष्टुकिः परिमण्डलम् ।६३ यद्यद्यस्य हि यत्पाश्र्वे पर्वताधिपतेऋषिः । तत्तदेवास्य वेदासौ ब्रह्मौ नं वेद कृत्स्नशः ।।६४ मणिरत्नमयं चित्रं नानावर्णप्रभायुतम् । अनेकवर्णनिचयं सौवर्णमरुणप्रभम् कान्तं सहस्रपर्वाणं सहस्रोदककन्दरम् । सहस्रशतपत्रं तं विद्धि मेलं नगोत्तमम् ६६ मणिरत्नापितस्तम्भैर्मणिचित्रितवेदिकैः । सुवर्णमणिचित्राङ्ग तथा विद्रुमतोरणैः ६७ विमानयानैः श्रीमद्भिः शतसंख्यैदिवौकसाम् । प्रभादीपितपर्यन्तं मेई पर्वणि पर्वणि ६८ ६५ परिमण्डलाकार पद्य की कणिका ( पपकोष ) छियानबे हजार योजनों की है। उसका अन्तराल चौरार उस योजनों और उनके केशर जाल तीन सौ हजार योजन में फैले हुये है । वे पत्र चारो चारों पद्मजो दिशाओं में फले हुये है उनका आयामविस्तार स हजार अस्सी योजनों का है । मुनिगण ! हमने पहले जिसको कणिका कहा है. उसका संक्षेप से वर्णन करते है, आप लोग एकाग्र मन से सुनिये ।५८-६१। अत्रि मुनि उसे शताश्रि और भृगु ऋषि सहस्राधि मानते है । सावण उसे अष्टात्रि मानते हैं और भागुरि चतुरस्र। वार्षायणि उसे समुदाकार मानते है और गालव शरावाकार । गाग्यं उसे ऊध्र्वे वेणी के आकार का और क्रोष्टु कि परिमण्डलाकार मानते हैं ।६२-६३। उस पर्वताधिपति के जिस जिस पाश्र्व भाग में जो ऋषि रहते है, वे उसे वैसा ही मानते हैं । इसे अच्छी तरह से केवल एक ब्रह्मा ही जानते है । उसे ही पर्वतों में उत्तम मेरु समझिये, जो मणियो और रत्नों से भरा हुआ है जो विविध भाँति के वर्षों की प्रभा से युक्त, अनेक वर्ण को धारण किये हुये सुवर्ण और अरुण की कान्ति के समान शोभाशाली है ।६४६५। कमनीय, हजार सन्धियों या स्तरों वाला, जल फेंकने वाली हजार कन्दराओं से युक्त और हजारों पद्म पुष्पों से शोभायमान है । मेरु की प्रत्येक ग्रन्थि में ( गण्ड शल ) श्रीसम्पन्न सैकड़ों देवगण विमानविहार द्वारा उसे दीप्ति युक्त करते है । मेरु स्वयं सुवर्ण-मणियों से अंग-अंग में खचित है और देवों के विमान भी मणि-रनों के खम्भों से ही बनाये गये हैं. उनके चबूतरों में भी भणियों से ही पच्चीकारी की गई है । उन पर गे के तोरण झेल रहे हैं, इससे मेरुकी फा०-३४ =