पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३२७

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३०८ I४४ धन्यास्ते सतमा देशा यत्र गङ्गा महानदी । रुद्रसाध्यानिलादित्यैर्जुष्टतोया यशोवती ।।४० महापादं प्रवक्ष्यामि मेरोरपि हि पश्चिमम् । नानारत्नाकरं पुण्यं पुण्यकृद्भिनिषेवितम् ४१ विपुलं शैलराजानं विपुलोदरकन्दरम् । नितम्बकुञ्जलटकवमलैर्मण्डितोदरम् ४२ अपि या त्र्यंबकस्यैषा त्रिदशैः सेवितोदका । वायुवेगा गतभोगा लतेव भ्रामिता पुनः ४३ मेरुकूटतटद् भ्रष्ट7 शहतैः स्वदितोदका । विस्तीर्यमाणसलिला निर्मलांशुकसंनिभ तस्य कूटेऽस्बरनदी सिद्धचारणसेविता । प्रदक्षिणमथाऽऽवृत्य पतिता सानुगामिनि ४५ देवभ्राजं महाभ्राजं सबैभ्राजं महावनम् । प्लावयन्ती महाभागा नानापुष्पफलोदका ४६ प्रदक्षिणं प्रकुर्वाणा नानयनविभूषिता । प्रविष्टा पश्चिमसरः सितोदं विमलोदक्षम् सा सितोदाद्विनिष्क्रान्ता सुपक्ष पवंत गता । सुपक्षतस्तु पुण्योदात्ततो देवर्षिसेवित ४८ सुपक्षकूटतटगा तस्माच्च संशितोदका । निपपात महाभागा रमण्यं शिखिपर्वतम् शिखेव पर्वतात्कफुकझाबेंझऍपर्वतम् । वैडूर्यात्कपिलं शैलं तस्माच्च गन्धमादनम् ५० तस्माद्गिरिवरात्प्राप्ता पिञ्जरं वरपर्वतम् । पिञ्जरासरसं याता तस्माच्च कुमुदाचलस् ॥५१ ४७ ४६ सध्य, वायु और आदित्य से सेवित यशश्विनी गंग प्र हित होती है, वह देश धन्य श्रेष्ठ है ।३८-४० अब हम मेरु से पश्चिम दिशा में स्थित सुविस्तृत प्रत्यन्त पर्वत की वकथा कहते है । वह नाना रन का आकर, पुण्यमय, पुण्यकर्ताओ से सेचित, अतिविस्तृत एवं विपुल कुक्षि और कन्दराओं द्वारा सुशोभित है । उसका भीतरी प्रदेश नितम्वस्थित कुंजो और विमल कटकों (पर्वत का मध्य भाग) से मंडित है । १-४२ भगवान् त्रिलोचन ने जिसको धारण किया है, देवगण जिसके जल का उपयोग करते है जो वायु की तरह वेगगमिनी, बहुदेश: व्यापिनी ओर लता की तरह घूमती हुई मेरु के भूग से गिरती है, जिसके जल का आस्वाद कितने ही जीवों ने किया है, जिसका जल अत्यन्त विस्तृत और निर्मल वस्त्र की तरह है, वह स्वर्गनदी मेरु शिखर पर सिद्ध- चरणों द्वारा सेवित हो इस प्रकार बहती है मानो प्रदक्षिणा करती है ।४३-४५। वह शैल शिखर के मध्य से होकर बहती हुई अन्त मे देवभ्राजचन में गिरती है । नाना पुष्प-फलों से युक्त जलवाली यह महाभागा नदी क्रम से देवभ्राज, महाभ्राज और वैभ्राज्य प्रभृति महवनों को प्रदक्षिणा क्रम से सीचफर एवं नाना बनों का मन्थन करके पश्चिम दिग्वर्ती विमल जल सितोद सरोवर में प्रविष्ट होती है । सितोद से निकलकर वह सुपक्ष पर्वत पर जाती है। देवीषयों द्वारा सेवित वह पुण्यसलिला महाभाग सुपक्षशिखरगामिनी महानदी फिर वहां से रमणीय शिखिपर्वत पर गिरती है ।४६-४६। शिखि पर्वत से कंक पर, कंक से वैद्यं पर्वत परवक्ष्य से कपिल शैल परकपिल से गन्धमादन पर, फिर श्रेष्ठ गन्धमादन पर्वत से शलश्रेष्ठ पिजर पर पिंजर से