पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५१४

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1 षष्टितमोऽध्यायः जनकस्य वचः श्रुत्वा मुनयस्ते श्रुतिसाः । दृष्ट्वा धनं महासारं धनवृद्ध्या जिघृक्षवः ॥ आह्वयांचरन्योन्यं वेदज्ञानमदोलवणाः मनसा गतचित्तास्ते ममेदं धनमित्त । समैवैतन्नवेत्यन्यो ब्रूहि किं वा विकल्प्यते ॥ इत्येवं धनदोषेण वादांच करनेकशः तथाऽन्यस्तत्र वै विद्वान्ह्मवाहसुतः कविः । याज्ञवल्क्यो महातेजास्तपस्वी ब्रह्मवित्तमः ब्रह्मणोऽङ्गात्सप्रुत्पन्नो वाक्यं प्रोवाच सुस्वरम् | शिष्यं ब्रह्मविदां श्रेष्ठो धनमेतद्गृहाण भोः नयस्वं च गृहंवत्स समैतन्नात्र संशयः । सर्ववेदेवहं वक्ता नान्यः कश्चित्तु मत्समः ॥ यो वा न प्रीयते विप्रः स मे हृयतु मा चिरम् ततो ब्रह्मार्णवः क्षुब्धः समुद्र इव संप्तवे | तानुवाच ततः स्वस्थो याज्ञवक्यो हसन्निव क्रोधं मा कार्षविद्वांसो भवन्तः सत्यवादिनः । वदामहे यथायुक्तं जिज्ञासन्तः परस्परम् ततोऽभ्युपागमंस्तेषां वादा जग्मुरनेकशः | सहस्रधा शुभैर: सूक्ष्मदर्शनसंभवः ४६३ ॥३६ 1180 ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ॥४५ ॥ ४६ धनी होते है, अर्थात् उनकी श्रेष्ठता का परिचय विद्या से होता है। राजर्षि जनक की ये वाते सुनकर वेद विशारद उन मुनियो ने उस बहुमूल्य धनराशि को अपनाने की अभिलापा से अपने-अपने वेद ज्ञान के मद से उन्मत्त होकर एक दूसरे को वादविवाद के लिये ललकारा । उस समय अनेक के मन में यह भाव उठ रहे थे कि यह सब धन हमारा है, कोई-कोई यह सोच रहे थे कि सब कुछ मेरे ही लिये है । कोई अपने दूसरे साथी से पूछ रहा था कि बोलो यह हमारे ही लिये है न, अथवा किसी दूसरे के लिये | बोलो, क्या विकल्प कर रहे हो । इस प्रकार उन ऋषियों में उस धनराशि के लोभ के कारण अनेक तरह के वादविवाद उठ खडे हुये १३८४०१ ठीक इसी अवसर पर वहाँ ब्रह्मवाहसुत, कवि, परमतेजस्वी, ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ, महान् तपस्वी याज्ञवल्क्य नामक एक दूसरे ऋषि, जो ब्रह्मा के अंग से समुत्पन्न हुये थे, अपने शिष्यों से उच्च स्वर में बोले - अरे जी ! जाकर इस धनराशि को उठा लो ।४१-४२१ वत्स ! जाओ सब को उठाकर घर ले चलो, अरे, यह सब हमारे हो है, इसमें सन्देह मत करो । सभी वेदों में मैं ही एकमात्र अधिकारी प्रवक्ता हूँ, मेरे समान वेदों पर अधिकार रखने वाला दूसरा कोई नही है । जिस किसी ब्राह्मण को मेरी यह बात अच्छी न लंगती हो वह सामने आ जाय, विलम्ब करने की कोई आवश्यकता नहीं है ? याज्ञवल्क्य की बातें सुनकर ब्राह्मण समुदाय प्रलय कालीन समुद्र की भाँति क्षुब्ध हो गया; पर स्वस्थ मनोवृत्ति सम्पन्न मुनिवर याज्ञवलत्रय हँसते हुये से बोलते रहे । वे फिर बोले :- विद्वद्वृन्द ! आप लोग हमारे ऊपर क्रुद्ध न हों, आप सभी सत्यवादी है। मैं सच कह रहा हूँ, आप लोग परस्पर विचार कर इसका निश्चय करें १४३-४५ । तदनन्तर वहाँ पर उन में परम्पर अनेक वादविवाद करने लगे, धन लोभ से युक्त उन महात्मा ऋषियों में लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक विपयो पर सूक्ष्मदर्शन