पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५५२

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द्विषष्टितमोऽध्यायः पुनर्महर्षयस्तस्य पाणि वेनस्य दक्षिणम् । अरणोमिव संरम्भान्ममन्थुजतमन्यवः पृथुस्तस्मात्समुत्पन्नः करास्फालनतेजसः । पृथोः करतलाद्वाऽपि यस्माज्जातः पृथुस्ततः ॥ दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिवोज्वलन् आद्यमाजगवं नाम धनुगृह्य महारवस् | शरांश्च बिभ्रद्रक्षार्थ कवचं च महाप्रभस् तस्मिञ्जातेऽथ भूतानि संप्रहृष्टानि सर्वशः । समुत्पन्ने महाराज्ञि वेनन् त्रिदिवं गतः समुत्पन्न राजर्षिः स सत्पुत्रेण धीमता । 'त्रातः स पुरुषव्याघ्रः पुत्रास्नो नरकात्तदा तं नद्यश्च समुद्रांच रत्नान्यादाय सर्वशः । अभिषेकाय तोयं च सर्व एवोपतस्थिरे पितामहश्च भगवानङ्गिरोभिः सहामरैः । स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि च सर्वशः समागम्य तदा वैन्यमभ्यषिश्चन्नराधिपम् । महता राजराज्येन महाराजं महाद्युतिम् सोऽभिषिक्तो महाराजो देवैरङ्गिरसः सुतैः । आदिराजो महाराजः पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् पित्राइपरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनातुरञ्जिताः । ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत ५३१ ॥१२७ ॥१२८ ॥१२६ ॥१३० ॥१३१ ॥१३२ ॥१३३ ॥१३४ ॥१३५ ॥१३६ का अतिशय कुपित हो वेगपूर्वक अरणी की भांति मन्थन किया । तब हाथो के शीघ्रतापूर्वक घर्षण के कारण समुत्पन्न तेज से पूर्ण उस दाहिने हाथ से पृथु उत्पन्न हुआ । पृथु के 'करतल' अर्थ होते है, उसी करतल से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम भी पृथु पड़ा । वह अपने शरीर को अनुपम कान्ति से साक्षात् अग्नि की तरह देदीप्यमान हो रहा था । सर्वप्रथम उसने प्रचण्ड ध्वनि करनेवाले, आजगव नामक महाधनुष को तथा वाणो को प्रजा के रक्षार्थ ग्रहणकर अतिशय द्युति से दमकते हुए कवच को धारण किया | उसके उत्पन्न होने पर सभी जीव समूह अतिषित हुए । महाराज पृथु के उत्पन्न होने पर वेन का स्वर्गवास हो गया ।१२६-१३०। इस प्रकार परम बुद्धिमान् एवं सच्चरित्र पुत्र पृथु के उत्पन्न होने के कारण पुरुषव्याघ्र राजर्षि वेन पुम् नामक नरक मे जाने से बच गया । सभी नदी तथा समुद्रगण सभी प्रकार के बहुमूल्य रत्नादि तथा पवित्र जल को ले लेकर अभिषेक के लिए पृथु के समीप उपस्थित हुए । तदनन्तर सभी देवताओं तथा अगिरा आदि मुनियों के साथ भगवान् ब्रह्मा ने विपुल राजकीय समग्रियों द्वारा आकर वेनपुत्र राजा पृथु का अभिषेक किया । इसी प्रकार सभी स्थावर जङ्गम जीवों ने भी उस अमित तेजस्वी कान्तिमान् राजाधिराज पृथु का अभिषेचन किया। देवताओं और अगिरा के पुत्रों द्वारा अभिषेक किये जाने पर वेनपुत्र आदिराज महाराज पृथु का प्रताप अधिक बढ़ गया | पिता से अप्रसन्न रहनेवाली प्रजाओं को उसने अतिप्रसन्न किया, जिससे प्रजा के ऊपर अधिक अनुराग रखने के कारण उसका 'राजा' यह नाम पड़ा ।१३१ - १३६। समुद्र पर

  • एतदर्धंस्थाने—“पुरुषव्याघ्रः पुंनाम्नो नरकास्त्रायते ततः" इति क. पुस्तके ।