पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५८३

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

५६२ वायुपुराणम् तस्माच्च कश्यपेनोक्तो ब्रह्मणा परमेष्ठिना | + तस्माद्दक्षः कश्यपाय कन्यास्ताः प्रत्यपद्यत ॥ सर्वाश्च ब्रह्मवादिन्यः सर्वास्ता लोकमातरः ॥११८ इत्येतसृषिसर्ग तु पुण्यं यो वेद वारुणम् | आयुष्मान्पुण्यवाञ्युद्धः सुखमाप्नोत्यनुत्तमम् ॥ धारणाच्छ्रवणाच्चैव सर्वपापैः प्रमुच्यते अथाब्रुवन्पुनः सर्वे मुनयो रोमहर्षणम् । विनिवृत्ते प्रजासर्गे षण्ठे व चाक्षुषस्य ह || निसर्गः संप्रवृत्तोऽयं मनोवस्वतस्य ह सूल उवाच प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः स्वयं दक्षः स्वयंभुवा | ससर्ज दक्षो भूतानि गतिमन्ति ध्रुवाणि च ॥ उपस्थितेऽन्तरे ह्यस्मिन्मनोवैवस्वतस्य ह ततः प्रवृत्तो दक्षस्तु प्रजाः स्रष्टुं चतुविधाः । जरायुजाण्डजाश्चैव उद्भिज्जा: स्वेदजास्तथा दश वर्षसहस्राणि तप्त्वा घोरं नहत्तपः । संभावितो योगबलैरणिसाद्य विशेषतः आत्मानं व्यभजच्छ्रीमान्मनुष्योरगराक्षसान् | देवासुरसगन्धर्वान्दिव्यसंहननप्रजान् ॥ ईश्वरानात्मनस्तुल्यान्रुपद्रवितेजसा ॥११६

॥१२० ॥१२१ ॥१२२ ॥१२३ ॥१२४ था अतः कश्यप नाम से विख्यात हुए | परमेष्ठी ब्रह्मा के अनुरोध पर एवं कश्यप की प्रार्थना पर दक्ष ने अपनी कन्याएँ कश्यप को सौप दी, वे दक्ष कन्याएँ ब्रह्मवादिनी एवं लोकमाता थी ।११५-११८। इस परम पवित्र पुण्यदायी वारुण सृष्टि के वृतान्त को जो जानता है वह दोर्घायु- सम्पन्न, पुण्यवान्, पवित्रात्मा परमानन्द को प्राप्त करता है । इस वृत्तान्त को धारण करनेवाले तथा सुननेवाले सभी पापो से मुक्त हो जाते है । तदनन्तर उन ऋषियों ने रोमहर्पण सूतजी से पुनः पूछा, हे सूतजी ! छठवे चाक्षुप मन्वन्तर की समाप्ति हो जाने पर यह वैवस्वत मन्वन्तर किस भाँति प्रवृत्त होता है ? इसे वताइये ।११६-१२०। सूत ने कहा- इस वैवस्वत मन्वन्तर के उपस्थित होने पर 'प्रजाओ की सृष्टि करो' -- स्वयंभु ब्रह्मा को इस आज्ञा पर दक्ष प्रजापति ने चर अचर सभी प्रकार के जीव समूहो की सृष्टि की। उस समय वे जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज चारो प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि के लिये प्रवृत्त हुए | १२१-१२२। और दस सहस्र वर्ष तक अति घोर तपस्या में निरत रह अणिमा आदि सिद्धियो तथा योगवल से समुत्पन्न होकर उन्होने अपने शरीर को मनुष्य, सर्प, राक्षस, देव, असुर, गन्धर्व प्रभृति दिव्य प्रजाओ तथा सम्पत्ति, + इदमर्ध नास्ति घ. पुस्तके | एतदधंस्थानेऽयं श्लोकः-- देवासुरगन्धर्वान्मनुष्योरगराक्षसान् । समानवानेतान्सर्वान्दिव्यसंहननप्रजान् । इति ख. ग. घ. ङ. पुस्तकेषु |