पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६०४

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षट्षष्टितमोऽध्यायः तस्मात्सुमनसो मेदाज्जायन्ते तेजसच ह | मन्वन्तरेषु सर्वेषु प्रजाः स्थावरजङ्गमाः ॥ सर्गादौ सकृदुत्पन्नास्तिष्ठन्तीह प्रशंसया ॥१४४ ॥१४५ ॥१४६ प्राप्ते प्राप्ते तु कल्पान्ते रुद्रः संहरति प्रजाः । जायन्ते मोहयन्तोऽन्यानीश्वरा योगमायया एश्वर्येण चरन्तस्ते मोहयन्ति ह्यनीश्वराः | तस्माद्दोषप्रचारेषु युक्तायुक्तं न विद्यते भूतापवादिनो दुष्टा मध्यस्था भूतभाविनः । भूतापनादिनः शक्तास्त्रयो वेदाः प्रवादिनाम्

  • परीक्ष्य यो न गृह्णाति गृह्णाति न विपर्ययात् । दृढपूर्वश्रुतत्वाच्च प्रवादाच्चैव लौकिकात् ॥

चतुभिः कारणैरेभिर्यथातत्त्वं न विन्दति ॥ १४७ पूर्वमर्थान्तरे न्यस्ताः कालान्तरगता अपि । तेनान्यत्सन्तमप्यर्थ द्वेषान्न प्रतिपद्यते (?) दशानां द्रव्यभूतो यो गुणभूतस्तु तेषु यः । कर्मणां महतां कर्ता अभिजात्या च यो महान् ॥ श्रुतज्ञैः कारणरेतैश्चतुभिः परिकीर्त्यते अशक्तरुष्टो जानाति देवताः प्रविभागशः । इमौ चोदाहरन्त्यत्र श्लोकौ योगेश्वरं प्रति ५८३ ॥१४८ ॥१४६ ॥१५० ॥१५१ मन्वन्तरों में अच्छे मनवाली स्थावर जंगम सभी प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं, और सृष्टि के आरम्भ मे उत्पन्न होकर महाप्रलय पर्यन्त अपनी सत्ता रखती हैं। प्रत्येक बार कल्पात के आने पर रुद्र प्रजाओ का संहार करते हैं । ऐश्वर्यशाली क्षेत्रज्ञगण योगमाया से अन्यान्य सर्वसामान्य जनों को मोहित करते हुए उत्पन्न होते हैं और अपने ऐश्वर्य के साथ विचरण करते हैं, उनके सामने ऐश्वर्यविहीन प्राणी मोहित होते है। इस कारण उन ऐश्वर्यंशालियों के दोषयुक्त व्यवहार में युक्त अयुक्त का विचार नही रखा जाता ।१४३-१४६। भूतों (?) के अपवाद करनेवाले दुष्ट, भूतों को अपने अनुकूल बनानेवाले मध्यस्थ, भूतो का विरोध करनेवाले शक्त ( समर्थ ) ये तीन प्रवादपटु जनों की श्रेणियाँ है (?) विना परीक्षा किये ही ग्रहण करता है, उलटा अर्थ अंगीकार करता है, पहिले सुने हुए अशुद्ध अर्थ पर ही विश्वाश रखकर दृढ़ निश्चय कर लेता है, अथवा लौकिक प्रवाद पर विश्वास रखता है— इन चार कारणों से यथार्थ तत्त्व को प्राप्त नहीं करता । पहिले किसी दूसरे अर्थ मे न्यस्त था, कालान्तर में उसकी प्रसिद्धि किसी अन्य अर्थ में हो गई, उस नवीन अर्थ के रहने पर भी द्वेष बुद्धि से उसे ग्रहण नही करता (?) । जो दसो प्रकार के द्रव्यों में तद्रूप विद्यमान रहता है, और उन-उन द्रव्यो में आश्रित गुण समूहों मे गुणभूत है । महदादि कार्य-कलापों का कर्त्ता है, जो सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि है वही ईश्वर है, श्रुतियों के तत्त्वों को जाननेवाले इन उपर्युक्त चार कारणों द्वारा उसको ईश्वरता का कीर्तन करते है ।१४७-१५०। असमर्थ एवं रुष्ट मनुष्य देवताओं को यथार्थतः विभागो समेत जानते है, योगेश्वर के प्रति लोग इन दो

  • इदमघं नास्ति क. पुस्तके |