द्विसप्ततितमोsध्याय: प्रवराश्व पतत्रिणः | उपनस्थुर्महाभागनान्तेयं शंकरात्मजन् । महाभागसहलागि प्रभावेण हतास्तेन दैत्यदानवराक्षसाः सह सप्तविभार्याभिराशवेवाग्निसंभवः । अभिषे करवाताभिर्दष्टी वर्ज्य त्यरुन्धतीम् ताभिः स बालार्कनिभो रौत्रः परिवृतः प्रभुः । स्विह्य वाताभिरत्यर्थ स्वकाभिरिव मातृभिः युगपत्सर्वदेवीहि दिवृक्षु जनः । षण्मुखान्यजच्छ्रोमांस्तालां प्रोल्या महाद्युतिः श्रीमान्कमलपत्राअस्तरुणादित्यसनिभः । येन जातेन लोकानामाक्षेपत्तेजता कृतः तेन जातेन महता देवानामसहिनः । सन्दिता दानवगणास्तस्मात्स्कन्दः प्रतापवान् कृत्तिकाभिस्तु यस्मात्स वर्धितः स पुरातनः । कार्तिकेय इति ख्यातस्तस्मादसुरसुदनः जृम्भतस्तस्य दैत्यारेवतमालाकुलातदा । मुखादिनिर्गता तत्त्य स्वशक्तिरपराजिता कोडार्थं चैन स्कन्दस्य विष्णुना प्रभविष्णुता | गरुडादति सृष्टौ हि पक्षिणौ हि प्रभद्रकौ ६६५ १३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१ ॥४२ ॥४३ ॥४४ ।।४५ अग्नि सम्भव कुमार की उपासना करने लगे । उस परम तेजस्वी कुमार ने अपने अनुपम प्रभाव से ही दैत्यों, दानवो तथा राक्षसो को हतप्रभ कर दिया |३५-३७१ अभिषेक के लिए आई हुई सप्तर्षियो की स्त्रियों में से अरुन्धती को छोड़कर सब ने सर्वप्रथम हो उस अग्निसम्भव कुमार का दर्शन किया | रुद्र के उस महान् तेजस्वी, परम ऐश्वर्यशाली, वालसूर्य के समान कान्तिमान् पुत्र को उन ऋषि पत्नियो ने चारो ओर से घेर लिया, और अपनी माता के समान परम स्नेह युक्त नेत्रो से देखने लगी उन सबो को प्रसन्न करने के लिए तथा एक ही साथ सव को देखने की इच्छा से जाह्नवी सुत ने छः मुखों की सृष्टि करली और उस समय उनकी महान् शोभा हुई । कमलनयन, मध्याह्न के सूर्य के समान कान्तिशाली, श्रीमान् अग्निसम्भव ने समस्त लोको को अपने तेज से तेजोविहीन कर दिया। उस महान्तेजस्वी के जन्म लेते ही देवताओं की श्री सम्पत्ति को न सहन करनेवाले दानवगण स्कन्दित (व्यथित ) हो गये अतः उस प्रताप शाली की स्कन्द नाम से प्रसिद्ध हुई |३८-४२॥ असुरों का विनाशक वह पुरातन पुरुष यतः कृत्तिकाओं द्वारा पुष्ट हुआ था अतः कार्तिकेय नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई । उस दैत्य विनाशक के जम्भुआई लेते समय मुख अग्नि की ज्वालाओ को माला से पूर्ण हो गया और उससे उसकी अपराजिता नामक शक्ति बाहर हुई |४३-४४ महान् प्रभावशाली भगवान् विष्णु ने स्कन्द की क्रीड़ा के लिए गरुड़ से भी अतिशय बलशाली तथा प्रभावशाली दो प्रभद्रक नामक मयूर और कुक्कुट पक्षियो
- नात्राध्यायपरिसमाप्तिः क. ख. घ. ङ. पुस्तकेपु | परंतु कथासंमत्याज्यमेव पाठ: समीचीन
इति प्रतिभाति । फा०-८४