पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७२७

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७०६ वायुपुराणम् तस्य नास्ति गतिस्थानं व्यक्ताव्यक्तं न संशयः । *नासन्न सदसच्चैव नैव किंचित्स्थितेरिति ॥१३५ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते श्राद्धकल्पे तीर्थयात्रा नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥७७।। अथाष्टसप्ततितमोऽध्यायः श्राद्ध कल्पः बृहस्पतिरुवाच अतः परं प्रवक्ष्यामि दानानि च फलानि च । श्राद्धकर्मणि मेध्यानि वर्जनीयानि यानि च हिमप्रपतने कुर्यादाहरेद्वा हिमं ततः । अग्निहोत्रमतः पुण्यं परमं हि ततः स्मृतम् नक्तं तु वर्जयेच्छ्राद्धं राहोरन्यत्र दर्शनात् । सर्वस्वेनापि कर्तव्यं क्षिप्रं वै राहुदर्शने ॥१ ॥२ ॥३ अपनी आत्मा को वियुक्त करते हैं, जिसके फलस्वरूप इस जन्म के उपरान्त उनकी न कोई गति होती है, न कोई स्थान रहता है. निश्चय हो वे व्यक्त एवं अव्यक्त किसी में नहीं रहते । न वे सत् है न असत् उनकी स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता । १३२-१३५॥ श्री वायुमहापुराण में श्राद्धकल्प में तीर्थयात्रा नामक सतहत्तरवाँ अध्याय समाप्त ॥३७॥ अध्याय ७८ श्राद्ध कल्प बृहस्पतिं ने कहा – अब इसके उपरान्त में श्राद्धकर्म में दिये जाने वाले दान एवं उनसे मिलने वाले फलों के बारे में बतला रहा हूँ, यह भी बतला रहा हूँ कि श्राद्ध में कौन सी वस्तुएँ पवित्र और कौन सी वजित रखी हैं |१| हिम गिरते समय हिम का भक्षण (?) करना चाहिये, तदनन्तर अर्थात् वसन्त ग्रीष्म आदि में अग्निहोत्र करना चाहिये यह विधि परम पुण्य प्रद कही जाती है। रात्रि के समय श्राद्धकमं वर्जित रखना चाहिये । रात्रि के बिना अन्य अवसर पर राहु के दर्शन के समय सर्वस्व व्यय करके शीघ्र ही श्राद्धकर्म करना चाहिये । जो व्यक्ति ग्रहण के अवसर पर श्राद्धकर्म नहीं करता है वह कीचड़ मे

  • एतदर्धस्थाने 'आसन्नः सदसन्नैव किंचित्स्थितः' इति क. पुस्तके |