पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७३०

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अष्टसप्ततितमोऽध्यायः नग्नादयो न पश्येयुः श्राद्धमेवं व्यवस्थितम् । गच्छन्ति तैस्तैर्दृष्टानि न पितृन पितामहान् शंयुरुवाच नग्नादी भगवन् सम्यङ्ममाद्य परिपृच्छतः । कथय द्विजमुख्याग्य विस्तरेण यथातथम् एवमुक्तो महातेजा बृहस्पतिरुवाच तम् । सर्वेषामेव भूतानां त्रयी संवरणं स्मृतम् परित्यजति यो मोहात्ते वै नग्नादयो जनाः । प्रलीयते नरो यस्मान्निरालम्बश्च यो वृष: वृषं यश्च परित्यज्य मोक्षमन्यत्र मार्गति वृथा 'वेदाश्रमास्तस्मिन्यो वै सभ्यडून पश्यति ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या वृषलाश्चैव सर्वशः । पुरा दे (दै) वासुरे युद्धे निर्जितैरसुरैस्तदा • पाषण्डवैकृतास्तात नैषा सृष्टिः स्वयंभुवः । * यद्विश्राद्धक निर्गन्थाः शक्त्या जीवन्ति कर्पटाः ये धर्म नानुवर्तन्ते ते वै नग्नादयो जनाः । वृथाजटी वृथामुण्डी वृथानग्नश्च यो द्विजः वृथाव्रती वृथाजापी ते वै नग्नादयो जनाः | कुलंधमा निकाशाश्च तथा पुष्टिकलंशकाः , -७०६ एतदर्धस्थानेऽयं पाठः –'द्विश्राद्धकश्च निर्ग्रन्थाः शाक्या पुष्टिकलशंकाः' इति क. पुस्तके | ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ रखने चाहिये । नंगे आदि असंस्कृत लोग श्राद्धकर्म न देखे - ऐसी व्यवस्था है। उन लोगों द्वारा देखे जाने पर श्राद्ध की वस्तुयें पितामहादि पितरों को नही प्राप्त होती |२३-२४॥ "शंयु ने कहा- 'हे भगवन् ! वे नंगे आदि कौन हैं ? हे 'श्रेष्ठ ब्राह्मणों मे पूज्य ! मैं उनके बारे में जानना चाहता हूँ, विस्तार पूर्वक उनका यथातथ्य वर्णन कीजिये |२५| शंयु के इस प्रकार पूछने पर महा तेजस्वी वृहस्पति ने उनसे कहा | संसार के समस्त जीवों ( मनुष्यों) के लिये तीनों वेद आच्छादान करनेवाले ( शान्ति देनेवाले) कहे गये है जो लोग अज्ञानवश उन्हें छोड़ देते है, वे नंगे हैं। मनुष्य जब वेद ' पराङ्मुख हो जाता है तब वह वेद रूप वृषं निरवलम्ब हो जाता है | २६ | जो इस धर्म रूप वृष को छोड़ से ● • कर अन्यत्र मोक्ष का मार्ग ढूंढता है, उसका वेदादि के अध्ययन का श्रम व्यर्थ है, क्योकि वह इन वेदों में दिये हुये मोक्ष के स्वरूप को भली भांति नहीं देखता है |२७| प्राचीनकाल में देवताओं और असुरों के युद्ध में पराजित हुये अमुरी द्वारा सभी ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य शूद्र पापण्डी होकर विकृत ( पतित ) हो गये, तात ! वह स्वयम्भू की वह सृष्टि नहीं रह गयी । जो लोग श्राद्धादि कार्यो के विरोध करनेवाले सद्ग्रन्थों के विरोधी, अपनी इच्छा एवं शक्ति के भरोसे जीवन यापन करते हैं, जो धर्म का आचरण नहीं करते, वे नंगे लोग हैं। व्यर्थ में जटा बढ़ानेवाले, व्यर्थ में मुण्डित शिर रहनेवाले, व्यर्थ में नग्न रहनेवाले जो द्विजाति है, वे सब भी नंगे लोग है | २८ -३११ व्यर्थ व्रत रखनवाले, व्यर्थ में जप करनेवाले कुल को पीड़ा पहुँचानेवाले निषाद, पुष्टि विनाशक एवं किये गये सत्कर्मो पर आक्षेप करनेवाले कुमार्गी कहे गये हैं। ऐसे लोगों द्वारा ॥२६ ॥३० ....॥३१ ॥३२