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अशीतितमोऽध्यायः

  • दिव्यैर्गन्धः प्रसिञ्चन्ति पुष्पवृष्टिभिरेव च । गन्धर्वाप्सरसस्तन्न गायन्ते वादयन्ति च

कन्या युवतयो मुख्याः सहिताश्र्वासरोगणैः | सुस्वरैस्ते विबुध्यन्ते सततं हि मनोरमैः अश्वदानसहस्रेण रथदानशतेन च । दन्तिनां च सहस्रेण योगिन्या वसते नरः दद्यात्पितृभ्यो योगिभ्यो यस्तूज्ज्वलनमस्भसि : अथ निष्कसहस्राणां फलं प्राप्नोति मानवः जीवितस्य प्रदानाद्धि नान्यद्दानं विशिष्यते । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन देयं प्राणाभिरक्षणम् अहिंसा सर्वदेवेभ्यः पवित्रा सर्वदायिनी । दानं हि जीवितस्याऽऽहुः प्राणिनां परमं बुधाः लक्षणानि सुवर्णानि श्राद्धे पात्राणि दापयेत् । रसास्तमुपतिष्ठन्ति भक्ष्याः सौभाग्यमेव च ७२७ ॥१३ ॥१४ ॥१५ धेनुं श्राद्धे तु यो दद्याद्गृष्टि कुम्भोपदोहनीम् | गावस्तमुपतिष्ठन्ति गवां पुष्टिस्तथैव च तु ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ पात्रं वै तैजसं दद्याम्मनोज्ञं श्राद्धभोजने । पात्रं भवति कामानां रूपस्य च धनस्य च ।।२० ( + राजतं काश्चनं वाऽपि दद्याच्छ्राद्धे तु कर्माणि | दत्त्वा तु लभते दाता प्रकामं धर्ममेव च ) ॥२१ ॥२२ जाती है । गन्धर्व और अप्सराओं के वृन्द दिव्य सुगन्धित द्रव्यो एवं पुष्प की वृष्टियों से उसे आच्छादित करते हैं | मनोहर गायन और वादन द्वारा उसका मनोरंजन करते है | परम सुन्दरी अप्सराओं के साथ मुख्य-मुख्य युवती कन्यायें मनोरम संगीतमय स्वरों से उन्हें सवंदा जगाती हैं |१२-१४॥ एक सहस्र अश्वों के दान करने से, एक सौ रथों के दान करने से तथा एक सहस्र हाथियों के दान करने से मनुष्य योगिनी के साथ निवास करता है | १५॥ जो व्यक्ति योग परायण पितरों के उद्देश्य से जल में दीपदान करता है, उसे एक सहस्र निष्कों के दान का फल प्राप्त होता है |१६| जीवनदान के समान विशेषता किसी अन्य दान की नहीं है, इसलिये सब प्रयत्न करके प्राणों की रक्षा का दान करना चाहिये |१७| अहिंसा देवताओं की अपेक्षा पवित्र एवं सबकुछ देनेवाली है, प्राणियों को जीवन का दान करना सभी दानों से श्रेष्ठ है- ऐसा बुद्धिमान् लोग कहते हैं | १८ | श्राद्ध में सभी लक्षणों से युक्त सुवर्ण के पात्रों का दान करना चाहिये । जो लोग श्राद्ध में इस प्रकार के सुवर्ण निर्मित पात्रों का दान करते है, उन्हें विविध प्रकार के खाद्य पदार्थ, रस एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है |१९| श्राद्धकाल में भोजन के अवसर पर सुन्दर बने हुए तंजस (चाँदी के) पात्रों का दान करना चाहिये, वह पात्र दाता के स्वरूप, धन-सम्पत्ति और सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाला होता है, (श्राद्धकर्म मे सुवर्ण अथवा चांदी के बने हुए पात्रों को जो दाता देते हैं, वे परम धर्म की प्राप्ति करते हैं ।) जो व्यक्ति श्राद्ध में दोहन पात्र के साथ एक बार की व्याई हुई गो का दान करता है, उसे अनेक गौयें प्राप्त होती हैं और सर्वदा पुष्टि रहती है |२०-२२। शिशिर ऋतु में श्राद्ध के अवसर पर जो

  • एतदर्धस्थान इदमधं 'दिव्यैः पुष्पः प्रसिवन्ति पूर्णवृष्टिभिरेव च ' इति ख. ग. घ. ङ. पुस्तकेषु ।

+ धनुश्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थो घ. पुस्तके नास्ति ।