पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८०५

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७८४ वायुपुराणम् दिव्यैः पुष्पैश्च तं देवाः समसंमत अद्भुतम् । स गत्वा पुरुषव्याघ्रस्तनयैः सह वीर्यवान् समुद्र खनयामास वालुकार्णवमव्ययम् । नारायणेन राजपस्तेजस प्यायितो हि सः बभूवातिबलो भूय उत्तङ्कस्य वशे स्थितः तस्य पुत्रैः खनद्भिश्च वालुकातहतस्तदा । धुन्धुरासादितस्तत्र दिशामाश्रित्य पश्चिमाम् मुखजेनाग्निना क्रुद्धो लोकानुद्वर्तयन्निव । वारि सुस्राव योगेन महोदधिरिवोदये सोमस्य सोमपश्रेष्ठ धारोमिंकलिलो महान् । तस्य पुत्रास्तु निर्दग्धास्त्रिभिरूनास्तु राक्षसाः ततः स राजाऽतिवलो धुन्धुबन्धुनिबर्हणः | तस्थ वारिमयं वेगमपिवत्स नराधिपः योगी योगेन वह्न वा शमयामास वारिणा | निरस्य तं महाकायं बलेनोदकराक्षसम् उत्तङ्कं दर्शयामास कृतकर्मा नराधिपः । उत्तश्च वरं प्रादात्तस्मै राज्ञे महात्मने अदात्तस्याक्षयं वित्तं शत्रुभिश्चाप्यधृष्यताम् । धर्मे रतिं च सततं स्वर्गे वासं तथाऽक्षयम् ॥ पुत्राणां चाक्षयाँल्लोकान्स्वर्गे ये रक्षसा हताः ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० कुवलाश्व अवश्यमेव धुन्चु का संहार करेगा | देवतागण चारों ओर से स्वर्गीय पुष्पों को वृष्टि उसके ऊपर करने लगे । इस प्रकार अपने पुत्रों समेत प्रस्थान कर परम वल शालो नरव्याघ्र कुवलाश्व ने उस बालुकामय समुद्र को जिसका विनाश असम्भव था, खनना प्रारम्भ किया। उस समय वह राजपि भगवान् के तेज से समन्वित होकर महान् बलवान हो गये थे, फिर भी महर्षि उत्तक के वश में वर्तमान थे । ४९-५३। उस समय जब कि उनके पुत्र गण उस वालुकामय समुद्र को खन रहे थे धुन्धु इधर पश्चिम दिशा की ओर दिखाई पड़ा । उस समय वह बहुत क्रोधित हो रहा था, मुख से अग्नि की विकराल ज्वालाएँ इस प्रकार उगल रहा था मानों समस्त लोकों को विनष्ट कर देना चाहता है । फिर उसने योगवल का आश्रय लेकर इतना जल वरसाया कि चारों ओर जल का भीषण समुद्र उमड़ पड़ा । हे सोमपान करनेवाले ऋषियों में सर्वोपरि ! उस समय वह जल राशि एवं तरंगे इस प्रकार ऊपर की ओर उमड़ने लगी मानों चन्द्रमा का उदय हो गया हो। इस प्रकार राक्षसों ने राजा के समस्त पुत्रो को, फेवल तीन पुत्रों को छोड़कर, भस्म कर दिया |५४-५६॥ तव धुन्धु के परिवार वर्ग को नष्ट करने को चिन्ता से उस महाबलवान राजा ने धुन्धु को उस समस्त जल राशि को पान कर लिया, और योगबल द्वारा जल से इस अग्नि को भी शान्त कर दिया । और उस प्रकार अपने अदम्य साहस से उस महाबलवान् जलवासी राक्षस धुन्धु को निरस्त कर दिया १५७-५८ अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर राजा महर्षि उत्तक के समीप उपस्थित हुए। महर्षि ने उस महात्मा राजा को उत्तम वरदान दिये । उसे कभी नष्ट न होने वाली अक्षय सम्पत्ति प्रदान को, शत्रुओं से उसे कभी पराजय न मिले, धर्म में प्रेम भावना को वृद्धि हो स्वर्गे लोक में निरन्तर बास हो, ― वहाँ से कभी पतन न हो ऐसा वरदान दिया। इसके अतिरिक्त 'राक्षसों -