पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८५४

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त्रिनवतितमोऽध्यायः हत्वा रजिसुतान्सर्वान्कामक्रोधपरायणान् । य इदं पावनं स्थानं प्रतिष्ठानं शतकतोः ॥ शृणुयाद्वा रजेर्वाऽपि न स दौरात्म्यमाप्नुयात् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते रजियुद्धं नाम द्विनवतितमोऽध्यायः ॥६२|| अथ त्रिनवतितमोऽध्यायः चन्द्रवंचवर्णनम् ऋषय ऊचु मरुत्तन कथं कन्या राज्ञे दत्ता महात्मना । किंवीर्याश्च महात्मानो जाता मरुत्तकन्यकाः सूत उवाच आहवन्तं मरुत्सोममन्नकामः प्रजेश्वरम् | मासि मासि महातेजाः षष्टिसंवत्सरान्नृपः ॥ अध्याय ६३ चन्द्रवंश वर्णन ॥१ ॥२ की पुनः इन्द्र पद प्राप्त का एवं महाराज रजि का यह परम पवित्र वृत्तान्त पढ़ता या सुनता है, वह कभी दुर्गति में नहीं पड़ता |९६-६६1 श्री वायुमहापुराण में रजियुद्ध नामक वानवेर्वा अध्याय समाप्त ||१२|| ऋषियों ने पूछा:- सूत जी ! महान् पराक्रमी मरुत्त ने राजा को किस प्रकार अपनी कन्या प्रदान की थी ? ओर मरुत्त की कन्या से उत्पन्न होने वाले वे महान् बलशाली पुत्र कितने पराक्रमी . हुए । ११ - सूत बोले :- महान् तेजस्वी राजा ने अन्न की कामना से साठ वर्षो तक प्रत्येक मास में प्रजापति फा०-१०५