पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९२८

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अष्टनवतितमोऽध्यायः अहं वोऽध्यापयिष्यामि प्राप्ता विद्या मया हि सा । ततस्ते हृष्टमनसो विद्यार्थमुपपेदिरे पूर्वं काम्य ( व्य) स्तदा तस्मिन्समये दशवार्षिके । ययौ च समकालं स सद्योत्पन्नमतिस्तदा समयान्ते देवयानी सद्योजाता सुता तदा । बुद्धि चक्रे ततश्चापि याज्यानां प्रत्यवेक्षणे शुक्र उवाच देवि गच्छामहे द्रष्टुं तव याज्याञ्शुचिस्मिते | विभ्रान्तप्रेक्षिते साध्वि त्रिवर्णायतलोचने एवमुक्ताऽब्रवीद्देवी भज भक्तान्महाव्रत । एष ब्रह्मन्सतां धर्मो न धर्म लोपयामि ते सूत उवाच ततो गत्वाऽसुरादृष्ट्वा देवाचार्येण धीमता । वश्वितान्काव्यरूपेण वेधसाऽसुरमब्रवीत् काव्यं मां तात जानोध्वमेष ह्याङ्गिरसो भुवि | वञ्चिता बत यूयं वै मयि शक्ते तु दानवाः श्रुत्वा तथा ब्रुवाणं तं संभ्रान्ता दितिजास्ततः । प्रेक्षन्ते स्म ह्य भौ तत्र स्थिताः खिन्नाः शुचि (सुवि) स्मिताः ७ ६०७ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ इतना कठोर तप करना पड़ा, पा ली है, उसे तुम सब को पढ़ाऊँगा।" बृहस्पति की ऐसी बातें सुनकर दैत्यगण बहुत प्रसन्न हुए और विद्याध्ययन के लिए वहीं एकत्र हुए | जयन्ती के अनुरोधानुसार इस दस वर्ष की अवधि के पूर्ण होने पर शुक्राचार्य का मोह नष्ट हुआ और उन्हें सद्बुद्धि प्राप्त हुई, अवधि के अन्त में जयन्ती के संयोग से उनकी पुत्री देवयानी उत्पन्न हुई । तदनन्तर उन्होंने अपने यजमानों की देखभाल करने का विचार किया ।१६-२० , शुक्र बोले :- शुचिस्मिते ! देवि ! साध्वि ! दीर्घनेत्रे ! सुन्दर प्रेक्षणे ! मैं अब तुम्हारे यजमानों को देखने के लिए जाना चाहता हूँ ।' शुक्राचार्य के ऐसा कहने पर जयन्ती ने कहा, महाव्रत ! अपने भक्तों का कल्याण कीजिये. सत्पुरुषों का यही धर्म है, आपके धर्म को मैं नष्ट नहीं करूंगी | २१-२२। सूत बोले : - इस प्रकार जयन्ती से बातें कर शुक्राचार्य ने जाकर असुरों को देखा कि उन्हे परम बुद्धिमान् देवताओं के गुरु बृहस्पति ने मेरा स्वरूप धारण कर ठग लिया है। ऐसा देखकर वे परम विस्मित होकर असुरों से बोले, दानवो ! शुक्राचार्य तो मै हूँ, यह तो खेद है कि मेरे विमूढ हो गये, अंगिरा का पुत्र वृहस्पति है, मुझे रहते हुए भी तुम लोग ठगे गये । शुक्राचार्य को ऐसा कहते हुए देखकर दैत्यगण किंकर्तव्य- और वही पर परम खिन्न एवं त्रिस्मत होकर दोनो गुरुओं की ओर देखने लगे। बड़ी देर