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श्रीविष्णुगीता।


न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।। ८० ॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
तस्माद्विधत्त कर्मैव पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥ ८१ ॥
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तद्वः कर्म प्रवक्ष्यामि यजज्ञात्वा मोक्ष्यथाशुभात् ॥ ८२ ॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ ८३ ॥
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्माणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान साधकेषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥ ८४ ॥
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणिं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ ८५ ॥


परधर्म भयोत्पादक है ॥ ७९ ॥ "मुझको सकल कर्म आसक्त नहीं करसक्ते एवं कर्मफलमें मेरी स्पृहा नहीं है। इस प्रकार जो मुझको जानता है वह कर्ममें बद्ध नहीं होता है ॥ ३०॥ इस प्रकार जानकर पूर्वकालीन मुमुक्षुओंने भी कर्म किया है अतः आपलोग भी पुराकालके मुमुक्षुओं द्वारा पूर्वकालमें कृत कर्मको ही करो ॥१॥ कर्म क्या है और अकर्म क्या है इस विषयमें विवेकी लोग भी मोहित होते हैं अतएव जिसके जाननेसे आपलोग अशुभ अर्थात् कर्मासक्तिसे मुक्त होगे उस कर्मको मैं कहता हूँ॥ ८२ ॥ कर्म अर्थात् निष्काम कर्मका रहस्य भी जानने योग्य है, विकर्म अर्थात् सकाम कर्मका रहस्य भी जानने योग्य है और अकर्म अर्थात् कर्माभावका भी रहस्य जानने योग्य है क्योंकि कर्मकी गति अतिगहन है ॥ ८३॥ जो निष्काम कर्ममें कर्माभाव देखता है और कर्मरहित अवस्थामें जो कर्मका होना देखता है वह साधकों में बुद्धिमान् है और वह सब कर्म करते रहनेपर भी मुझमें युक्त है ॥४॥जिसके सब कर्म कामना और सङ्कल्पसे रहित हैं ज्ञानीलोग