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श्रीविष्णुगीता।


अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ ९१ ॥
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं जानीत तं सुराः !
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ १२ ॥ आरुरुक्षोर्मुनेर्योग कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।। १३॥
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते ।। १४ ॥
देवाः ! नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत कश्चित् क्वापि दुर्गतिमृच्छति ॥२५ ।।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ १६ ॥
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ।। ९७ ॥


में प्रवृत्त होने के कारण कर्मफलमें आसक्त होकर बद्ध होता है ॥१२॥ हे देवगण ! जिसको सन्न्यास कहते हैं उसीको योग जानो क्योंकि फलकामनाका त्याग किये विना कोई योगी नहीं हो सकता है ॥२॥ कर्मयोगमार्गपर चलनेकी इच्छा करनेवाले योगीके लिये कर्म ही कारणरूप (साधनरूप) कहाजाता है। परन्तु कर्मयोगपदपर आरूढ़ व्यक्तिके लिये समाधि ही कारणरूप ( साधनरूप) कहीगई है॥२३॥ साधक जब इन्द्रियोके भोग्य विषयोंपर और उनके साधनभूत कर्मोपर आसक्ति नहीं रखता है तब वह सर्वसंकल्पत्यागी व्यक्ति योगारूढ़ कहाजाता है ॥ ९४ ॥ हे देवगण ! इस लोकमें वा परलोकमें उसका विनाश नहीं है क्योकि कोई भी शुभकर्मकारी कहीं भी दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता है ॥२५॥ योगभ्रष्ट व्यक्ति पुण्यात्माओंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहां बहुत वर्षों तक सुखभोग करके पवित्रात्मा श्रीमानोके घर में जन्म ग्रहण करता है॥१६॥अथवा ज्ञानी योगियोंके वंशमे यह जन्म ग्रहण करता है.