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श्रीविष्णुगीता।


न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः
माययाऽपहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ ६२ ॥
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनो ननु ।
आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च विबुधर्षभाः ! ॥ ६३ ॥
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ ६४ ॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ ६५ ॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते ।
परमात्मा सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ ६६ ॥ कामैस्तैस्तहृतज्ञानाः प्रपद्यन्ते किलेतरान् ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ ६७ ।।


यह मेरा मत है ॥ ६१ ॥ पापशील विवेकहीन नराधम व्यक्ति मायाके द्वारा हतशान होकर आसुरीभावको प्राप्त होते हुए मुझको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ ६२ ॥ हे देवगण ! आर्त्त जिज्ञासु अर्थार्थी और ज्ञानी, ये चार प्रकारके पुण्यात्मा व्यक्ति मेरी उपासना करते हैं ॥३३॥ इनमेंसे ज्ञानी सर्वदा मुझमें निष्ठावान् और एकमात्र मुझमें ही भक्ति रखनेवाला होनेसे श्रेष्ठ है; क्योंकि मैं ज्ञानी भक्तका अतिप्रिय हूं और वह भी मेरा प्रिय है॥ ६४॥ ये सब ही महान् हैं परन्तु ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है, यह मेरा मत है; क्योंकि वह ज्ञानी भक्त मुझमें एकचित्त होकर सर्वोत्तम गतिस्वरूप मुझकोही आश्रय करता है॥६५॥ बहुत जन्म ग्रहण करनेके बाद ज्ञानवान् व्यक्ति “यह चराचर विश्व ही परमात्मस्वरूप है" ऐसा अनुभव करके मुझको प्राप्त होता है, ऐसा महात्मा जगत्में दुर्लभ है ॥ ६६ ॥ सांसारिक अनेक प्रकारकी कामनाओंसे हतज्ञान व्यक्ति अनेक प्रकारके नियमोंका अवलम्बन करके अपनी प्रकृतिको नियमित करते हुए ही औरोकी (देवतादिकी)