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श्रीविष्णुगीता।


वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चामराः ।
भविष्याणि च भूतानि मान्तु वेद न कश्चन ॥ १४३ ।।
इच्छोद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्रमोहेन निर्जराः ।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्त्यसुरारयः ! ॥ १४४ ।।
येषान्त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्रमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ १४५ ॥
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ १४६ ।।
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ १४७ ।।

देवा ऊचुः ।। १४८ ॥

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म परमेश्वर ! ।
अधिभूतञ्च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥ १४९ ॥


अजन्मा और अविनाशी नहीं जानता है ॥ १४२ ॥ हे देवतागण ! मैं भूत भविष्यत् और वर्तमानकालमें स्थित (सकल स्थावर जङ्गमात्मक) भूतोको जानता हूँ परन्तु मुझको कोई नहीं जानता है॥१४॥ हे असुरशत्रु देवतागण ! इच्छा और द्वेषसे सम्भूत द्वन्द्वके मोहसे सृष्टिकालमें सब जीव सम्मोहको प्राप्त होते हैं ॥१४४॥ किन्तु जिन पुण्यात्मा व्यक्तियोंका पाप नष्ट होगया है वे द्वन्द्व जनित मोहसे रहित होकर दृढ़व्रत होते हुए मेरी भक्तिमें रत होते हैं। ॥ १४५ ॥ जरा और मरणसे बचनेके लिये मेरा आश्रय करके जो प्रयत्न करते है वे उस ब्रह्मको, समस्त अध्यात्मको और समस्त कर्मकोजानते हैं॥१४६॥ जो मुझको अधिदेव अधिभूत और अधियज्ञके सहित जानते हैं, मुझमें आसक्तचित्त वे मरणकालमें भी मुझको जानते हैं .॥ १४७ ।।

देवतागण बोले ॥ १४८ ॥

  हे परमेश्वर ! वह ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है. कर्म क्या है, अधिभूत किसको कहा गया है, अधिदैव किसको कहते हैं, इस देहमें