जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ५२ ॥
विहाय कामान् यः सर्वान् प्राणी चरति निःस्पृहः ।।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ५३ ॥
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयाऽनघाः ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। ५४ ।।
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं साधकोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ५५ ॥
न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
फलको त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर सर्वोपद्रवशून्य मोक्षपदको प्राप्त होते हैं ॥ ५१ ॥जिस प्रकार ( नाना नदियों के द्वारा आपूर्यमाण और अचञ्चल समुद्रमे (अन्य ) जलप्रवेश करने अर्थात उसमें मिलजाते हैं, उसी प्रकार जिसमें सकल कामना प्रवेश करती हैं अर्थात् लीन होती है वह शान्तिको प्राप्त होता है किन्तु भोगकामनाशील व्यक्ति शान्तिको नहीं प्राप्त होता है॥५२॥ जोप्राणी सकल काम्यवस्तुओंकी उपेक्षा करके निःस्पृह निराहार और विषयों में ममताशून्य होकर यत्र तत्र भ्रमण करता है वह शांति कोप्राप्त होता है ॥५३॥ हे निष्पापो ! इस लोकमे दो प्रकारकी निष्टा मैंने पहले कही है, यथा:- ज्ञानयोग द्वारा सांख्योकी और कर्मयोग द्वारा योगियोकी ।। ५४ ।। कोई साधक कर्मका अनुष्ठान न करके नैष्कर्म्य अवस्थाको नहीं पासक्ता है एवं ( आसक्तित्याग के बिना केवल सन्न्यास (कर्म्मत्याग) सेही सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है॥ ५५॥ किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कोई कर्म न