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श्रीविष्णुगीता।


कार्य्यते ह्यवशः कर्म सर्वैः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५६॥
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ १७ ॥ यस्त्विान्द्रयाणि मनसा नियम्यारभतेऽमराः ।
कम्र्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।। ५८ ॥
नियतं क्रियतां कर्म कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्राऽपि च वो न प्रसिद्धयेदकर्मणाम् ॥ ५९ ॥
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म देवौघाः ! मुक्तसङ्गा विधत्त भोः ॥ ६० ॥ यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च साधकः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ ६१॥
नैव तस्य कृतेनार्थो नाऽकृतेनेह कश्चन |


करके नहीं ही रह सक्ता है, प्रकृतिजनित ( सत्त्वादि ) सब गुण ही अवश करके कर्म कराते हैं ॥ १६॥ जो व्यक्ति कर्मेन्द्रियोंको संयत करके मनमें इन्द्रियोंके सकल विषयोको स्मरण करता रहता है उस विमूढात्माको कपटाचारी कहते हैं ॥ ५७ ॥ किन्तु हे देवतागण ! जो मन द्वारा इन्द्रियोको संयत करके कर्म्मेन्द्रियोंसे कर्मयोगका अनुष्ठान करता है फलकामनाहीन वह व्यक्ति विशिष्ट है अर्थात प्रशंसायोग्य है ॥ ५८ ॥ आपलोग अवश्यकर्तव्य कर्म करो क्योंकि कर्म न करनेसे कर्म्म करना श्रेष्ठ है। कर्मौका त्याग करनेसे आप लोगोंका शरीरयात्रानिब्वाह भी नहीं होगा ॥१२॥हे देवतागण यज्ञाार्थ कर्म्मोके अतिरिक्त कर्म्म करनेपर इस लोकमें कर्म बन्धन होता है अतएव यज्ञके लक्ष्यसे निष्काम होकर काम होकर कर्म्मोको करो॥६॥किन्तु जो साधक आत्मामे ही रत है, आत्मामें ही तृप्त है एवं आत्मामें ही सन्तुष्ट रहता है उसकलिये कुछ भी कर्तव्य नहीं है॥६१॥ इस लोकमे किये हुए कर्म्मेद्वारा उसको पुण्य भी नही होता है और न करनेसे कोई पाप भी नहीं होता है एवं सकल