नचास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १२॥
तस्मादसक्तैः सततं कार्य कर्म विधीयताम् ।
असक्ताः कर्म कुर्वन्तो लभन्ते पूरुषं परम् ॥ ६३ ।।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता साधकाः सुराः ।। लोकसंग्रहमेवापि पश्यन्तः कर्त्तेुमर्हथ ॥ ६४ ॥
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरः खलु।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्त्तते ॥ ६५ ॥
देवाः ! मेस्ति न कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ ६६ ॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वानुवर्त्तन्ते प्राणिनः सर्वशोऽमराः । ॥ ६७ ॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
भूतोंमें स्थित ऐहिक या पारत्रिक कोई भी विषय उसके लिये आश्रयणीय नहीं है ॥ ६२ ॥ अतः आपलोग फलासक्तिशून्य होकर सर्वदा अवश्यकर्त्तव्य कर्म्मौका अनुष्ठान करो क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करनेसे साधक मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ ६३ ॥ हे देवतागण । साधकगण कर्मके द्वारा ही संसिद्धि अर्थात् ज्ञान प्राप्त हुए हैं। सब लोगोंको अपने अपने धर्म में प्रवर्तित करनेके विषयका लक्ष्य रखकर भी कर्म करना उचित है ॥६४॥ क्योंकि श्रेष्ठ व्यक्ति जो जो करते हैं अन्यान्य लोग भी वही वही करते हैं, वे जिसको कर्तव्य समझते हैं उसीका अनुवर्तन लोग करते हैं ॥ ६५ ॥ हे देवतागण । मेरा कर्तव्य कुछ नहीं है क्योंकि त्रिलोकीमें मेरे लिये अप्राप्त वा प्राप्तव्य कुछ नहीं है तथापि में कर्ममें प्रवृत्तही रहता हूँ ॥६६॥ हे देवतागण ! कभी यदि में आलस्यरहित होकर कर्मानुष्ठान न करूं तो निश्चयही जीवधारी मेरे मार्गको सर्वतोभावसे अनुसरण करेंगे ॥ ६७ ॥ यदि मैं कर्म न करूं तो ये सब लोग (धर्मलोप होनेसे)