[
जन्य पुण्य से ( देवत्वम्) देवभाव को (एति) प्राप्त होता है
और (पातकैः) वेदविहित कर्मो के न करने से तथा वेद निषिद्ध
कम के करने से उनके पापों से (अध:) नरक को (ब्रजति )
प्राप्त होता है। शेष बचे हुए पापों से फिर नरक से आकर इस
लोक में (स्थावरादीन् देहान् प्राप्य ) स्थावर श्रादिक नीच
देहों को प्राप्त होकर बहुत प्रकार से (प्रणश्यन्) नष्ट भ्रष्ट होता
हुश्रा फिर कभी दैवयोग से अपने सुख दु:खरूप फल के देने
के लिये एक साथ ही उद्यत हुए (ताभ्याम्) निज पुण्य पापों
से (क्वचिदपि ) कदाचित् अर्थात् किसी काल में (मानुषत्वम्)
मनुष्य शरीर को भी ( लभते ) प्राप्त होता है फिर, (कर्मज्ञानो
भयेन विधिपदं व्रजति ) कर्म और उपासना करके हिरण्यगर्भ
के स्थान भूत ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है और ( तस्मिन् ) उस
हिरण्यगर्भ लोक में (कोपिमुच्यते ) कोई विरक्त उपासक ब्रह्मा
के साथ मुक्त होजाता है और (रागी) भोगों की इच्छावाला
( भूयः जनिंप्रत्येति) ब्रह्मलोक से प्राकर यहां इसी लोक में
पुनः पुनः जन्मको प्राप्त होता है । (इति ) इस प्रकार (विषमम्)
बहुत दुःखकर ऐसे (इह) इस संसार में (लोकः) जीव
( बंभ्रमीति) पुनः पुनः अर्थात् वार वार भ्रमता है, क्षणमात्र
भी विश्रांति को प्राप्त नहीं होता ॥५२॥
दुःखं स्वर्गात् प्रपाते बहुविध नरके गर्भ वासेऽति
दुःखं नि:स्वातन्न्याशनाया ग्रहगद रुदितेः
शेशवे दुःखमेव! तारुण्येऽमर्ष लोभ व्यसन परि
भवोद्वेग दारिद्रयदुःखं वार्द्धक्ये शेोकमोहेन्द्रिय
गर्दै द:खमन्तेऽतिदःखम् ॥५३॥