पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३४

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१२६ ] स्वाराज्य सिद्धि (पिण्डावस्था घटत्वे) मृत्तिका की ही यह पिंडावस्था है तथा घटत्वावस्था है (मनसि विमृशत: ) इस प्रकार मनमें मृत्तिकाकी उक्त भिन्न भिन्न दोनों अवस्थाओं का विचार करते हुए पुरुष के अंत:करण में (हेतु कार्यत्वधीः स्यात्) कारणकार्यरूप भेद ज्ञान होता है और उक्त मृत्तिकाकी इन दोनों अवस्थात्रओोंमें (एकंमृन्मात्रं स्फुटम्) एक मृत्तिका ही स्फुट है, (अभिमृशत्से

) इस प्रकार

विचार करते हुए पुरुष के अंत:करण में यह स्फुट निश्चय हो जाता है कि (नैवहेतुः न कार्यम्) न कारण है और न कार्य है, अर्थात् कार्य कारण भिन्न नहीं है । (यद्वत्) जैसे यह दृष्टांत हे ( तद्वत्) तैसे ही दार्टीन्त मे भी (मायिप्रपंचौ) ईश्वर और ब्रह्मांड दोनों को (मनसि कलयतः) भिन्न भिन्न विचार करतेहुए अधिकारी के अंत:करण में (विश्वस्य हेतुः ब्रह्म) समस्त संसार का कारण ब्रह्म है, अर्थात् कार्य कारण का जितना . भेदु है ( सन्मात्र एकरूपम्) सब कवल श्रद्वत रूप सन्मात्र है और ( पटुपरि मृशतः) इस प्रकार दृढ़ रूप से विचार करते हुए अधिकारी के मन में ( नैवमायी न विश्वम् ) न ईश्वर है न विश्व है, अर्थात् ईश्वर ब्रह्मांड में भेद नहीं है इस प्रकार निश्चय हो जाता है। अर्थ यह है कि जैसे पिंडावस्था में तथा घटत्वावस्था में एक मृत्तिका ही यथार्थ है तैसे ही, ईश्वरा वस्था में और ब्रह्मांडावस्था हैं एक अस्ति भांति प्रियरूप ब्रह्म ही यथार्थ है इस प्रकार अभेद का निश्चय होजाता है।॥११॥ पूर्व कार्य की जो मिथ्यारूपता कही उसमें यह शंका प्राप्त होती है कि यदि जगत् मिथ्या है तो सत् रूप कैसे प्रतीत होता है ? इस शंका का समाधान दृष्टांत पूर्वक किया जाता है कुम्भः सत्कुसूलं सदखिलमिति यद्भाति