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स्वाराज्य सिद्धिः


कम के फलों को भोक्ता है, इसलिये अकृताभ्यागम दोष अर्थात् बिना किये की प्राप्ति रूप दोष श्राता है और प्रधान में कम के फलों का भोग नहीं देखा है इसलिये स्वकृत कम का नाश रूप दोष भी प्राप्त होता है। यहां इस दोष से बचने के लिये यदि ऐसा मानले कि कर्म दूसरा भोगता है तो .यज्ञद्त्त एक का कृत भोजनक्रिया से अकर्ता देवदत्त में तृप्तिरूप भोग होजाना चाहिये । इसलिये प्रधान करता और पुरुष भोगता हो यह भी असंभव है (असंगे ) संबंधमात्र से रहित और (अनतिशयिनि) किंचित् संबंध कृत अतिशयता से रहित पुरुष में (भोगोपि कीदृक् स्यात्) भीग भी किस प्रकार होगा यह भी तुमको विचार कर कहना चाहिये । भाव यह है कि जब भोग से पहले वा भोग भोग से पीछे किंचित् संबंध वा संबंध कृत अतिशयता ही पुरुष में नहीं है तो पुरुष में भोग ही किस प्रकार संभवित है अर्थात् ऐसे होने पर पुरुष में किसी प्रकार का भोग संवभ नहीं । फिर ( तेन) उस पुरुषकृत भोग से (भोग्यस्य) प्रधानको (कोऽर्थः) क्या स्वार्थ है ? जड़ में स्वार्थ का अनुसंधान ही असंभव होने से कोई भी स्वार्थ नहीं है और स्वार्थ से विना प्रवृत्ति असंभव होती है क्योंकि अति दयालु पुरुष की परदुःख. की निवृत्ति अर्थ प्रवृत्ति भी विचार कर देखा जावे तो स्वदुःख की निवृत्ति रूप स्वार्थानुसंधान से ही है और वैरी पुरुष की परपुरुष के दुःख देने में प्रवृत्ति भी अपना पूर्व बदला लेने से स्वप्रसन्नतारूप स्वार्थानुसंधान से ही है। परंतु प्रधान को तो जड़ होने से पुरुष के सुख का दुःख भोग देने की प्रवृत्ति में कोई स्वार्थानु संधान ही संभव नहीं है। पुरुष श्रार प्रधान का जा परस्पर का श्रविवेक है वही पुरुष को भोग देने के लिये प्रधान की प्रवृत्ति में कारण है ऐसा मानो तो हम पूछते हैं (श्रविवेकः कीदृक्) वह अविवेक किस प्रकार का है ? वह अविवेक यदि