महाभारतम्-08-कर्णपर्व-091

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अष्टमपर्व
महाभारतम्-08-कर्णपर्व-091
वेदव्यासः
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रणाय कर्णार्जुनयोः समागमः।। 1 ।। तदवलोकनाय दिवि देवगन्धर्वादीनां समागमः।। 2 ।। देवासुरादीनां कर्णार्जु नसमाश्रयणेन द्वैधीभावः।। 3 ।।

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सञ्जय उवाच।8-91-1x
वृषसेनं हतं दृष्ट्वा क्रोधामर्षसमन्वितः।
पुत्रशोकोद्भवं वारि नेत्राभ्यां समवासृजत्।।
8-91-1a
8-91-1b
रथेन कर्णस्तेजस्वी जगामाभिमुखो रिपुम्।
युद्धायामर्पताम्राक्षः समाहूय धनञ्जयम्।।
8-91-2a
8-91-2b
तौ रथौ सूर्यसङ्काशौ वैयाघ्रपरिवारितौ।
समेतौ ददृशुस्तत्र द्वाविवार्कौ समुद्गतौ।।
8-91-3a
8-91-3b
श्वेताश्वौ पुरुषादित्यावास्थितावरिमर्दनौ।
शुशुभाते महात्मानौ चन्द्रादित्यौ यथा दिवि।
`रथौ चतुर्भिर्जलदैर्भगमित्राविवाम्बरे'।।
8-91-4a
8-91-4b
8-91-4c
तौ दृष्ट्वा विस्मयं जग्मुः सर्वसैन्यानि मारिष।
त्रैलोक्यविजये यत्ताविन्द्रवैरोचनाविव।।
8-91-5a
8-91-5b
रथज्यातलनिर्हादैर्बाणशङ्खरवैस्तथा।
तौ रथावभ्यधावन्त क्षत्रियाः सर्व एव हि।।
8-91-6a
8-91-6b
ध्वजावालोक्य वीराणां विस्मयः समपद्यत।
हस्तिकक्ष्यां च कर्णस्य वानरं च किरीटिनः।।
8-91-7a
8-91-7b
तौ रथौ सम्प्रसक्तौ तु दृष्ट्वा भारत पार्थिवाः।
सिंहनादरवांश्चक्रुः साधुवादांश्च पुष्कलान्।।
8-91-8a
8-91-8b
श्रुत्वा तयोर्द्वैरथं च तत्र योधाः सहस्रशः।
चक्रुर्बाहुस्वनांश्चैव तथा बाणरवं महत्।।
8-91-9a
8-91-9b
आजघ्नुः कुरवस्तत्र वादित्राणि समन्ततः।
राधेयमभितो दध्मुः शङ्खाञ्शतसहस्रशः।।
8-91-10a
8-91-10b
तथैव पाण्डवाः सर्वे हर्षयन्तो धनञ्जयम्।
तूर्यशङ्खनिनादेन दिशः सर्वा व्यनादयन्।।
8-91-11a
8-91-11b
क्ष्वेलितास्फोटितोत्क्रुष्टैस्तुमुलं सर्वतोऽभवत्।
बाहुशब्दैश्च शूराणां कर्णार्जुनसमागमे।।
8-91-12a
8-91-12b
तौ दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रौ रथस्थौ रथिनां वरौ।
प्रगृहीतमहाचापौ शरशक्तिध्वजायुतौ।।
8-91-13a
8-91-13b
वर्मिणौ बद्धनिस्त्रिंशौ श्वेताश्वौ शङ्खशोभितौ।
तूणीरवसम्पन्नौ द्वावप्येतौ सुदर्शनौ।।
8-91-14a
8-91-14b
रक्तचन्दनदिग्धाङ्गौ समदौ गोवृषाविव।
चापविद्युद्ध्वजोपेतौ शस्त्रसम्पत्तियोधिनौ।।
8-91-15a
8-91-15b
चामरव्यजनोपैतौ श्वेतच्छत्रोपशोभितौ।
कृष्णशल्यरथोपेतौ तुल्यरूपौ महारथौ।।
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8-91-16b
सिंहस्कन्धौ दीर्घभुजौ रक्ताक्षौ हेममालिनौ।
सिंहस्कन्धप्रतीकाशौ व्यूढोरस्कौ महाबलौ।
अन्योन्यवधमिच्छन्तावन्योन्यजयकाङ्क्षिणौ।।
8-91-17a
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8-91-17c
अन्योन्यमभिधावन्तौ गोष्ठे गोवृषभाविव।
प्रभिन्नाविव मातङ्गौ सुसंरब्धाविवाचलौ।।
8-91-18a
8-91-18b
आशीविषशिशुप्रख्यौ यमकालान्तकोपमौ।
इन्द्रवृत्राविव क्रुद्धौ सूर्यचन्द्रसमप्रभौ।।
8-91-19a
8-91-19b
महाग्रहाविव क्रुद्धौ युगान्ताय समुत्थितौ।
देवगर्भौ देवसमौ देवतुल्यौ च रूपतः।।
8-91-20a
8-91-20b
यदृच्छया समायातौ सूर्याचन्द्रमसौ यथा।
बलिनौ समरे दृप्तौ नानाशस्त्रधरौ युधि।।
8-91-21a
8-91-21b
तौ दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रौ शार्दूलाविव धिष्ठितौ।
बभूव परमो हर्षस्तावकानां विशाम्पते।।
8-91-22a
8-91-22b
संशयः सर्वभूतानां विजये समपद्यत।
समेतौ पुरुषव्याघ्रौ प्रेक्ष्य कर्णधनञ्जयौ।।
8-91-23a
8-91-23b
उभौ वरायुधधरावुभौ रणकृतश्रमौ।
उभौ च बाहुशब्देन नादयन्तौ नभस्तलम्।।
8-91-24a
8-91-24b
उभौ विश्रुतकर्माणौ पौरुषेण बलेन च।
उभौ च सदृशौ युद्धे शम्बरामरराजयोः।।
8-91-25a
8-91-25b
कार्तवीर्यसमौ चोभावुभौ दाशरथेः समौ।
विष्णुवीर्यसमौ चोभावुभौ भवसमौ युधि।।
8-91-26a
8-91-26b
उभौ श्वेतहयौ राजन्रथप्रवरवाहिनौ।
सारथिप्रवरौ चापि उभौ मद्रजनार्दनौ।।
8-91-27a
8-91-27b
ततो दृष्ट्वा महाराज राजमानौ महारथौ।
सिद्धचारणसङ्घानां विस्मयः समपद्यत।।
8-91-28a
8-91-28b
धार्तराष्ट्रास्ततस्तूर्णं सबला भरतर्षभ।
परिवव्रुर्महात्मानं कर्णमाहवशोभिनम्।।
8-91-29a
8-91-29b
तथैव पाण्डवा दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।
यमौ च चेकितानश्च प्रहृष्टाश्च प्रभद्रकाः।।
8-91-30a
8-91-30b
नानादेश्याश्च ये शूराः शिष्टा युद्धाभिनन्दिनः।
ते सर्वे सहिता हृष्टाः परिवव्रुर्धनञ्जयम्।।
8-91-31a
8-91-31b
रिरक्षिषन्तः शथ्रुघ्नाः पत्त्यश्वरथकुञ्जराः।
धनञ्जयस्य विजये धृताः कर्णवधेऽपि च।।
8-91-32a
8-91-32b
तथैव तावकाः सर्वे यत्ताः सेनाप्रहारिणः।
दुर्योधनमुखा राजन्कर्णं जुगुपुराहवे।।
8-91-33a
8-91-33b
तावकानां रणे कर्णो ग्लहो ह्यासीद्विशाम्पते।
तथैव पाण्डवेयानां ग्लहः पार्थोऽभवत्तदा।।
8-91-34a
8-91-34b
तयोस्तु सभ्यास्तत्रासन्प्रेक्षकाश्चाभवन्युधि।
तत्रैषां ग्लहमानानां ध्रुवौ जयपराजयौ।।
8-91-35a
8-91-35b
ताभ्यां द्यतं समासक्तं विजयायेतराय वा।
अस्माकं पाण्डवानां च स्थितानां रणमूर्धनि।।
8-91-36a
8-91-36b
तौ तु स्थितौ महाराज समरे युद्धशालिनौ।
अन्योन्यं प्रतिसंरब्धावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ।।
8-91-37a
8-91-37b
तावुमौ प्रजिहीर्षन्ताविन्द्रवृत्राविव प्रभो।
भीमरूपधरावास्तां महाधूमाविव ग्रहौ।।
8-91-38a
8-91-38b
ततोऽन्तरिक्षे सञ्जज्ञे विवादो भरतर्षभ।
मिथो भेदाश्च भूतानामासन्कर्णार्जुनान्तरे।।
8-91-39a
8-91-39b
व्याश्रयन्त द्विधा भिन्नाः सर्वे लोकास्तु मारिष।
देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः।
प्रतिपक्षग्रहं चक्रुः कर्णार्जुनसमागमे।।
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द्यौरासीत्कर्णपक्षेऽत्र सनक्षत्रा विशाम्पते।
भूर्विशाला पार्थमाता पुत्रस्य जयकाङ्क्षिणी।।
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सागराश्चैव गिरयः सरितश्च नरोत्तम।
महीजा जलजाश्चैव व्याश्रयन्त किरीटिनम्।।
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असुरा यातुधानाश्च गुह्यकाश्च परन्तप।
कर्णः समभवद्यत्र खेचराणि वयांसि च।।
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रत्नानि निधयः सर्वे वेदाश्चाख्यानपञ्चमाः।
सोपवेदोपनिषदो व्याश्रयन्त किरीटिनम्।।
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वासुकिश्चित्रसेनश्च तक्षकश्चोपतक्षकः।
महीवियज्जलचराः काद्रवेयाश्च सान्वयाः।
विषवन्तो महानागा वेगिनश्चार्जुनेऽभवन्।।
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ऐरावताः सौरभेया वैशालेयाश्च भोगिनः।
एतेऽभवन्नर्जुनस्य पापाः सर्पाश्च कर्णतः।।
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ईहामृगा व्यालमृगा मङ्गला मृगपक्षिणः।
मङ्गलाः पशवश्चैव सिंहव्याघ्रास्तथैव च।
पार्थस्य विजये राजन्सर्व एव समाश्रिताः।।
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वसवो मरुतः साध्या रुद्रा देवाश्विनावपि।
अग्नी रुद्रश्च सोमश्च पन्नगाश्च दिशो दश।
कर्णतः समपद्यन्त श्वसृगालवयांसि च।।
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वसवश्च महेन्द्रेण मरुतश्च सहाग्निना।
धनञ्जयस्य ते वर्गा आदित्याः कर्णतोऽभवन्।।
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देवताः पितृभिः सार्धमृषिभिश्च परन्तप।
तुम्बुरुप्रमुखाः सर्वे गन्धर्वा भरतर्षभ।
यमौ वैश्रवणश्चैव वरुणश्च यतोऽर्जुनः।।
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देवर्षिब्रह्मर्षिगणाः सर्वे च खचराश्च ये
प्रालेयाः सहमौनेयाः शुभाश्चाप्सरसां गणाः।।
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सहाप्सरोभिः शुभ्राभिर्देवदूताश्च गुह्यकाः।
किरीटिनं संश्रिताः स्म पुण्यगन्धा मनोरमाः।।
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अमनोज्ञाश्च ये गन्धास्ते सर्वे कर्णमाश्रिताः।
विपरीतान्यनिष्टानि भवन्ति विनशिष्यताम्।।
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ये त्वन्तकाले पुरुषं विपरीतमुपाश्रितम्।
प्रविशन्ति नरं क्षिप्रं मृत्युकालेऽभ्युपागते।
ते भावाः सहिताः कर्णं प्रविष्टाः सूतनन्दनम्।।
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ओजस्तेजश्च सिद्धिश्च प्रहर्षः सत्यविक्रमौ।
मनस्तुष्टिर्जयश्चापि तथाऽऽनन्दो नृपोत्तम।।
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ईदृशार्नि नरव्याघ् तस्मिन्सङ्ग्रामसागरे।
निमित्तानि च शुभ्राणि विविशुर्जिष्णुमाहवे।।
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ऋषयो ब्राह्मणैः सार्धमभजन्त किरीटिनम्।। 8-91-57a
ततो देवगणैः सार्धं सिद्धाश्च सह चारणैः।
द्विधा भूता महाराज व्याश्रयन्त नरोत्तमौ।।
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विमानानि विचित्राणि गुणवन्ति च सर्वशः।
समारुह्य समाजग्मुर्द्वैरथं कर्णपार्थयोः।
अन्तरिक्षे महाराज देवगन्धर्वराक्षसाः।।
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एवं सर्वेषु भूतेषु द्विधा भूतेषु भारत।
आशंसमानेषु जयं राधेयस्यार्जुनस्य च।
विमानायुतसम्बाधमाकाशमभवत्तदा।।
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ईहामृगव्यालमृगैर्दिपाश्वरथपङ्क्तिभिः।
ऊह्यमानाः परे मेघैर्वायुना च मनीषिणः।
दिदृक्षवः समाजग्मुः कर्णार्जुनसमागमम्।।
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देवदानवगन्धर्वा नागयक्षपतत्रिणः।
महर्षयो देवगणाः पितरश्च स्वधाभुजः।।
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तपोविद्यौषधीसिदधा नानारूपाम्बरत्विषः।
अन्तरिक्षे महाराज विवदन्तोऽवतस्थिरे।।
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ब्रह्मा ब्रह्मर्षिभिः सार्धं प्रजापतिभिरेव च।
आस्थितो यानमाकाशे दिव्यं तेजः समागताः।।
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ततः प्रजापतिस्तूर्णमाजगाम महामते।
द्वैरथं युधि तं द्रुष्टं कर्णपाण्डवयोस्तदा।।
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विजित्य कर्णः स्विदिमां वसुन्धरा--
मथार्जुनः स्वित्प्रतिपद्यतेऽखिलाम्।
इतीश्वरस्यापि बभूव संशयः
प्रजापतेः प्रेक्ष्य तयोर्महद्बलम्।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे एकनवतितमोऽध्यायः।। 91 ।।
कर्णपर्व-090 पुटाग्रे अल्लिखितम्। कर्णपर्व-092