यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३०/मन्त्रः १०

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अध्यायः ३०
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३०


उत्सादेभ्य इत्यस्य नारायण ऋषिः। विद्वान् देवता। भुरिगत्यष्टिश्छन्दः। गान्धारः स्वरः॥

पुनस्तमेव विषमाह॥

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

उ॒त्सा॒देभ्यः॑ कु॒ब्जं प्र॒मुदे॑ वाम॒नं द्वा॒र्भ्यः स्रा॒म स्वप्ना॑या॒न्धमध॑र्माय बधि॒रं प॒वित्रा॑य भि॒षजं॑ प्र॒ज्ञाना॑य नक्षत्रद॒र्शमा॑शि॒क्षायै॑ प्र॒श्निन॑मुपशि॒क्षाया॑ऽअभिप्र॒श्निनं॑ म॒र्यादा॑यै प्रश्नविवा॒कम्॥१०॥

पदपाठः—उ॒त्सा॒देभ्य॒ इत्यु॑त्ऽसा॒देभ्यः॑। कु॒ब्जम्। प्र॒मुद॒ इति॑ प्र॒ऽमुदे॑। वा॒म॒नम्। द्वा॒र्भ्य इति॑ द्वाः॒ऽभ्यः। स्रा॒मम्। स्वप्ना॑य। अ॒न्धम्। अध॑र्माय। ब॒धि॒रम्। प॒वित्रा॑य। भि॒षज॑म्। प्र॒ज्ञाना॒येति॑ प्र॒ऽज्ञाना॑य। न॒क्ष॒त्र॒द॒र्शमिति॑ नक्षत्रऽद॒र्शम्। आ॒शि॒क्षाया॒ इत्या॑ऽशि॒क्षायै॑। प्र॒श्निन॑म्। उ॒प॒शि॒क्षाया॒ इत्यु॑पऽशि॒क्षायै॑। अ॒भि॒प्र॒श्निन॒मित्य॑भिऽप्रश्निन॑म्। म॒र्यादा॑यै। प्र॒श्न॒वि॒वा॒कमिति॑ प्रश्नऽविवा॒कम्॥१०॥

पदार्थः—(उत्सादेभ्यः) नाशेभ्यः प्रवृत्तम् (कुब्जम्) वक्राङ्गम् (प्रमुदे) प्रकृष्टानन्दाय (वामनम्) ह्रस्वाङ्गम् (द्वार्भ्यः) सवर्णेभ्य आच्छादनेभ्यः प्रवृत्तम् (स्रामम्) सततं प्रस्रवितजलनेत्रम् (स्वप्नाय) निद्रायै (अन्धम्) (अधर्माय) धर्माचरणरहिताय (बधिरम्) श्रोत्रविकलम् (पवित्राय) रोगनिवारणेन शुद्धिकरणाय (भिषजम्) वैद्यम् (प्रज्ञानाय) प्रकृष्टज्ञानवर्धनाय (नक्षत्रदर्शम्) यो नक्षत्राणि पश्यत्येतैर्दर्शयति वा तम् (आशिक्षायै) समन्ताद् विद्योपादानाय (प्रश्निनम्) प्रशस्ताः प्रश्ना विद्यन्ते यस्य (उपशिक्षायै) उपवेदादिविद्योपादानाय (अभिप्रश्निनम्) अभितः बहवः प्रश्ना विद्यन्ते यस्य तम् (मर्यादायै) न्यायाऽन्यायव्यवस्थायै (प्रश्नविवाकम्) यः प्रश्नान् विवेचयति तम्॥१०॥

अन्वयः—हे परमेश्वर राजन् वा! त्वमुत्सादेभ्यः कुब्जं प्रमुदे वामनं द्वार्भ्यः स्रामं स्वप्नायाऽन्धमधर्माय बधिरं परासुव। पवित्राय भिषजं प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शमाशिक्षायै प्रश्निनमुपशिक्षाया अभिप्रश्निनं मर्यादायै प्रश्नविवाकमासुव॥१०॥

भावार्थः—हे राजन्! यथेश्वरः पापाचरणफलप्रदानेन कुब्जवामनस्रवितजलनेत्रान्धबधिरान् मनुष्यादीन् करोति, भिषग्ज्योतिर्विदध्यापकपरीक्षकप्रश्नोत्तरविवेचकेभ्यः श्रेष्ठकर्मफलदानेन पवित्रता प्रज्ञाविद्याग्रहणध्यापन-परीक्षाप्रश्नोत्तरकरणसामर्थ्यञ्च ददाति, तथैव त्वं येन येनाङ्गेन नरा विचेष्टन्ते, तस्य तस्याङ्गस्योपरि दण्डनिपातनेन वैद्यादीनां प्रतिष्ठाकरणेन च राजधर्मं सततमुन्नय॥१०॥

पदार्थः—हे परमेश्वर वा राजन्! आप (उत्सादेभ्यः) नाश करने को प्रवृत्त हुए (कुब्जम्) कुबड़े को (प्रमुदे) प्रबल कामादि के आनन्द के लिए (वामनम्) छोटे मनुष्य को (द्वार्भ्यः) आच्छादन के अर्थ (स्रामम्) जिस के नेत्रों से निरन्तर जल निकले उस को (स्वप्नाय) सोने के लिए (अन्धम्) अन्धे को और (अधर्माय) धर्माचरण से रहित के लिए (बधिरम्) बहिरे को पृथक् कीजिए और (पवित्राय) रोग की निवृत्ति करने के अर्थ (भिषजम्) वैद्य को (प्रज्ञानाय) उत्तम ज्ञान बढ़ाने के अर्थ (नक्षत्रदर्शम्) नक्षत्रों को देखने वा इनसे उत्तम विषयों को दिखानेहारे गणितज्ञ ज्योतिषी को (आशिक्षायै) अच्छे प्रकार विद्या ग्रहण के लिए (प्रश्निनम्) प्रशंसित प्रश्नकर्त्ता को (उपशिक्षायै) उपवेदादि विद्या के ग्रहण के लिए (अभि, प्रश्निनम्) सब ओर से बहुत प्रश्न करने वाले को और (मर्यादायै) न्याय-अन्याय की व्यवस्था के लिए (प्रश्नविवाकम्) प्रश्नों के विवेचन कर उत्तर देने वाले को उत्पन्न कीजिए॥१०॥

भावार्थः—हे राजन्! जैसे ईश्वर पापाचरण के फल देने से लूले, लंगड़े, बौने, चिपड़े, अंधे, बहिरे मनुष्यादि को करता और वैद्य, ज्योतिषी, अध्यापक, परीक्षक तथा प्रश्नोत्तरों के विवेचकों के अर्थ श्रेष्ठ कर्मों के फल देने से पवित्रता, बुद्धि, विद्या के ग्रहण, पढ़ने, परीक्षा लेने और प्रश्नोत्तर करने का सामर्थ्य देता है, वैसे ही आप भी जिस-जिस अंग से मनुष्य विरुद्ध करते हैं, उस-उस अंग पर दण्ड मारने और वैद्यादि की प्रतिष्ठा करने से राजधर्म की निरन्तर उन्नति कीजिए॥१०॥