यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ३/मन्त्रः ५०

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अध्यायः ३
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः ३


देहि म इत्यस्यौर्णवाभ ऋषिः। इन्द्रो देवता। भुरिगनुष्टुप् छन्दः। गान्धारः स्वरः॥

अथ सर्वाश्रमव्यवहार उपदिश्यते॥

अब अगले मन्त्र में सब आश्रमों में रहने वाले मनुष्यों के व्यवहारों का उपदेश किया है॥

दे॒हि मे॒ ददा॑मि ते॒ नि मे॑ धेहि॒ नि ते॑ दधे।

नि॒हारं॑ च॒ हरा॑सि मे नि॒हारं॒ निह॑राणि ते॒ स्वाहा॑॥५०॥

पदपाठः—दे॒हि। मे॒। ददा॑मि। ते॒। नि। मे॒। धे॒हि॒। नि। ते॒। द॒धे॒। नि॒हार॒मिति॑ नि॒ऽहार॑म्। च॒। हरा॑सि। मे॒। नि॒हार॒मिति॑ नि॒ऽहार॑म्। नि। ह॒रा॒णि॒। ते॒। स्वाहा॑॥५०॥

पदार्थः—(देहि) (मे) मह्यम् (ददामि) (ते) तुभ्यम् (नि) नितराम् (मे) मम (धेहि) धारय (नि) नितराम् (ते) तव (दधे) धारये (निहारम्) मूल्येन क्रेतव्यं वस्तु नितरां ह्रियते तत् (च) समुच्चये (हरासि) हर प्रयच्छ, अयं लेट् प्रयोगः। (मे) मह्यम् (निहारम्) पदार्थमूल्यम् (नि) नितराम् (हराणि) प्रयच्छानि (ते) तुभ्यम् (स्वाहा) सत्यावागाह। अयं मन्त्रः (शत॰ २.५.३.१९-२०) व्याख्यातः॥५०॥

अन्वयः—हे मित्र! त्वं यथा स्वाहासत्यावागाहेत्येवं मे मह्यमिदं देह्यहं च ते तुभ्यमिदं ददामि, त्वं मे ममेदं वस्तु निधेह्यहं ते तवेदं निदधे, त्वं मे मह्यं निहारं हरास्यहं ते तुभ्यं निहारं निहराणि नितरां ददानि॥५०॥

भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैर्दानग्रहणनिःक्षेपोपनिध्यादिव्यवहाराः सत्यत्वेनैव कार्याः। तद्यथा केनचिदुक्तमिदं वस्तु त्वया देयं न वा। यदि वदेद् ददामि दास्यामि वेति तर्हि तत्तथैव कर्तव्यम्। केनचिदुक्तं ममेदं वस्तु त्वं स्वसमीपे रक्ष, यदाहमिच्छेयम्, तदा देयम्। एवमहं तवेदं वस्तु रक्षयामि, यदा त्वमेष्यसि तदा दास्यामि। तस्मिन् समये दास्यामि, त्वत्समीपमागमिष्यामि वा, त्वया ग्राह्यम्, मम समीपमागन्तव्यमित्यादयो व्यवहाराः सत्यवाचा कार्याः। नैतैर्विना कस्यचित् प्रतिष्ठाकार्यसिद्धी स्यातां नैताभ्यां विना कश्चित् सततं सुखं प्राप्तुं शक्नोतीति॥५०॥

पदार्थः—हे मित्र! तुम (स्वाहा) जैसे सत्यवाणी हृदय में कहे वैसे (मे) मुझ को यह वस्तु (देहि) दे वा मैं (ते) तुझ को यह वस्तु (ददामि) देऊँ वा देऊँगा तथा तू (मे) मेरी यह वस्तु (निधेहि) धारण कर मैं (ते) तुम्हारी यह वस्तु (निदधे) धारण करता हूँ और तू (मे) मुझको (निहारम्) मोल से खरीदने योग्य वस्तु को (हरासि) ले। मैं (ते) तुझको (निहारम्) पदार्थों का मोल (निहराणि) निश्चय करके देऊँ (स्वाहा) ये सब व्यवहार सत्यवाणी से करें, अन्यथा से व्यवहार सिद्ध नहीं होते हैं॥५०॥

भावार्थः—सब मनुष्यों को देना-लेना, पदार्थों को रखना-रखवाना वा धारण करना आदि व्यवहार सत्यप्रतिज्ञा से ही करने चाहिये। जैसे किसी मनुष्य ने कहा कि यह वस्तु तुम हमको देना, मैं यह देता तथा देऊँगा, ऐसा कहे तो वैसा ही करना। तथा किसी ने कहा कि मेरी यह वस्तु तुम अपने पास रख लेओ, जब इच्छा करूँ तब तुम दे देना। इसी प्रकार मैं तुम्हारी यह वस्तु रख लेता हूँ, जब तुम इच्छा करोगे तब देऊँगा वा उसी समय मैं तुम्हारे पास आऊँगा वा तुम आकर ले लेना इत्यादि ये सब व्यवहार सत्यवाणी ही से करने चाहियें और ऐसे व्यवहारों के विना किसी मनुष्य की प्रतिष्ठा वा कार्यों की सिद्धि नहीं होती और इन दोनों के विना कोई मनुष्य सुखों को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता॥५०॥