← अध्यायः १० लक्ष्मीतन्त्रम्
अध्यायः ११
[[लेखकः :|]]
अध्यायः १२ →
लक्ष्मीतन्त्रस्य अध्यायाः


एकादशोऽध्याः - 11
श्रीः{1}---
निर्दोषो {2}निरधिष्ठेयो निरवद्यः सनातनः।
विष्णुर्नारायणः {3}श्रीमान् परमात्मा सनातनः ।। 1 ।।
1. - - - - - - - - - - - - - -
{1. श्रीरुवाच B. }
{2. नि निष्टो यो E. I. }
{3. श्रीशः E. I. }
षाड्‌गुण्यविग्रहो {4}नित्यं परं ब्रह्माक्षरं परम्।
तस्य मां परमां शक्तिं नित्यं तद्धर्मधर्मिणीम् ।। 2 ।।
2.ब्रह्माक्षरशब्दयोः प्रकृतिजीवयोरपि प्रयोगात् तद्व्युदासाय परमिति विशेषणम्।
{4. नित्यः E. }
सर्वभावानुगां विद्धि निर्दोषामनपायिनीम्।
सर्वकार्यकरी साहं विष्णोरव्ययरूपिणः ।। 3 ।।
3. - - - - - - - - - - - - - -
शुद्धाशुद्धमयैर्भावैर्वितत्यात्मानमात्मना।
परव्यूहादिसंभेदं व्यूहयन्ती हरेः सदा ।। 4 ।।
4. - - - - - - - - - - - - - -
शुद्धषाड्‌गुण्यमादाय कलपयन्ती तथा तथा।
{5}तेन नानाविधं रूपं{6}व्यूहाद्युचितमञ्जसा ।। 5 ।।
5. - - - - - - - - - - - - - -
{5. तेनापि विविधं E. }
{6. व्यूहाद्यञ्चित E. }
उन्मेषयामि देवस्य प्रकारं भवदुत्तरम्।
व्यापारस्तस्य देवस्य साहमस्मि न संशयः ।। 6 ।।
6. - - - - - - - - - - - - - -
मया कृतं हि यत् कर्म तेन तत् कृतमुच्यते।
अहं हि तस्य देवस्य स्मृता {7}व्याप्रियमाणता ।। 7 ।।
7. - - - - - - - - - - - - - -
{7. व्याक्रिय A. I. }
इति {8}शक्र परं रूपं व्यूहरूपं च दर्शितम्।
तृतीयं विभवाख्यं तु रूपमद्य निशामय ।। 8 ।।
8. - - - - - - - - - - - -
{8. कृत्वा A. I. }
तुर्यादिजाग्रदन्तं यत् प्रोक्तं पदचतुष्टयम्।
वासुदेवादिना व्याप्तमनिरुद्धान्तिमेन तु ।। 9 ।।
9. - - - - - - - - - - - -
तत्र तत्र पदे चैव चातुरात्म्यं तथा तथा।
अव्यक्तव्यक्तरूपैः स्वैरुदितं ते यथोदितम् ।। 10 ।।
10. - - - - - - - - - - - - - -
व्यूहाद् व्यूहसमुत्पत्तौ पदाद्यावत्पदान्तरम्।
{9}अन्तरं सकलं देशं संपूरयति तेजसा ।। 11 ।।
11. - - - - - - - - - - - - -
{9. आनन्दं G. }
{10}पूजितस्तेजसां राशिरव्यक्तो मूर्तिवर्जितः।
विशाखयूप इत्युक्तस्तत्तज्ज्ञानादिबृंहितः ।। 12 ।।
12. विशाखयूपो नामाप्राकृते दिव्यलोके भ्राजमानो ज्योतिर्मयः स्तम्भाकारो भगवद्रूपविशेषः। तत्राधोभागमारभ्य ऊर्ध्वभागपर्यन्तं चत्वारि पर्वाणि क्रमेणानिरुद्धप्रद्युम्नसंकर्षणवासुदेवाधिष्ठितानि स्पष्टतरस्पष्टकिंचित्स्पष्टास्पष्टशङ्खचक्रादिलक्ष्माणि। प्रतिपर्व प्रागादिक्रमेण चतुर्ष्वपि पार्श्वेषु क्रमेण वासुदेवादयो व्यूहा भ्राजन्ते। एवं विभागश्च योगिना ध्यानालम्बनार्थं भगवतैव कल्पितः। अस्य च विस्तरः सात्त्वतसंहितायां द्रष्टव्यः।
{10. पूरितः G. }
तस्मिंस्तस्मिन् पदे तस्मान्मूर्तिशाखाचतुष्टयम्।
वासुदेवादिकं शक्र प्रादुर्भवति वै क्रमात् ।। 13 ।।
13. - - - - - - - - - - - -
एवं स्वप्नपदाज्जाग्रत्पदव्यूहविभावने।
स्वप्रात्पदाज्जाग्रदन्ते तैजसः पूज्यते महान् ।। 14 ।।
14. - - - - - - - - - - - - -
विशाखयूपो भगवान् स देवस्तेजसां निधिः।
तुर्याद्ये स्वप्नपर्यन्ते {11}चातुरात्म्यत्रिके हि यत् ।। 15 ।।
15. - - - - - - - - - - - - - - -
{11. चातुरात्म्यादिके A. B. C. D. F. }
तत्तदैश्वर्यसंपन्ने षाड्‌गुण्यं सुव्यवस्थितम्।
तदादायाखिलं दिव्यं {12}शुद्धसंवित्पुरःसरम् ।। 16 ।।
16. - - - - - - - - - - - - - -
{12. शुद्धं B. }
विभजन्नात्मनात्मानं वासुदेवादिरूपतः{13}।
{14}पुनविभववेलायां विना मूर्तिचतुष्टयम् ।। 17 ।।
17. - - - - - - - - - - - - -
{13. रूपकम् A. B. C. }
{14. पुनर्विशाख E. }
विशाखयूप एवैष विभवान् भावयत्युत।
ते देवा विभवात्मानः पद्मनाभादयो मताः ।। 18 ।।
18. - - - - - - - - - - - - -
पद्मनाभो ध्रुवोऽनन्तः शक्रीशो मधुसूदनः।
विद्याधिदेवः कपिलो विश्वरूपो विहंगमः ।। 19 ।।
19. एत एव देवा व्यञ्जनाधिष्ठातृतया तत्तन्महिषीभिः सहात्रैव विंशाध्याये वक्ष्यन्ते।
{15}क्रोडात्मा बडवावक्त्रो धर्मो वागीश्वरस्तथा।
एकार्णवान्तःशायी च तथैव कमठाकृतिः ।। 20 ।।
20. - - - - - - - - - - - -
{15. क्रोधात्मा A. C. D. F. I. }
वराहो नरसिंहश्चाप्यमृताहरणस्तथा।
श्रीपतिर्दिव्यदेहोऽथ कान्तात्मामृतधारकः ।। 21 ।।
21. - - - - - - - - - - - - - -
राहुजित् कालनेमिघ्नः पारिजातहरस्तथा।
लोकनाथस्तु शान्तात्मा दत्तात्रेयो महाप्रभुः ।। 22 ।।
22. - - - - - - - - - - - - - -
न्यग्रोधशायी भगवानेकशृङ्गतनुस्तथा।
देवो वामनदेहस्तु सर्वव्यापी त्रिविक्रमः ।। 23 ।।
23. - - - - - - - - - - - - - -
नरो नारायणश्चैव हरिः कृष्णस्तथैव च।
ज्वलत्परशुभृद्रामो{16} रामश्चान्यो धनुर्धरः ।। 24 ।।
24. - - - - - - - - - - - - - -
{16. धृग्रामो A. B. C. D. }
वेदविद्भगवान् कल्की पातालशयनः प्रभुः।
{17}त्रिंशच्चाष्टाविमे देवाः पद्मनाभादयो मताः ।। 25 ।।
25. - - - - - - - - - - - - - -
{17. त्रिंशदष्टाविमे A. B. C. D. }
विभोर्विशाखयूपस्य तत्तत्कार्यवशादिमे।
{18}स्फूर्तयो विभवाः ख्याताः कार्यं चैषामसंकरम्{19} ।। 26 ।।
26. - - - - - - - - - - - - - - - - -
{18. मूर्तयो A. B. C. D. }
{19. असंकरः B. }
शुद्धाशुद्धाध्वनोर्मध्ये पद्मनाभो व्यवस्थितः।
ध्रुवादयोऽपरे {20}देवा विवृता विश्वमन्दिरे ।। 27 ।।
27. - - - - - - - - - - - - - -
{20. देवाः प्रवृत्ताः E. }
रूपाण्यस्त्राणि चैतेषां शक्तयश्चापरा विधाः।
सर्वं तत् सात्त्वते सिद्धं संज्ञामात्रं प्रदर्शितम् ।। 28 ।।
28. - - - - - - - - - - - - - -
शाखास्तु वासुदेवाद्या विभोर्देवस्य कीर्तिताः।
विशाखयूपो भगवान् वितताभिः करोति तत् ।। 29 ।।
29. - - - - - - - - - - - - - -
चतसृभ्योऽथ शाखाभ्यः केशवाद्यं त्रयं त्रयम्।
दामोदरान्तमुद्भूतं तद्‌ व्यूहान्तरमुच्यते ।। 30 ।।
30. - - - - - - - - - - - - - -
ताभ्य {21}एव हि शाखाभ्यः श्रियादीनां त्रयं त्रयम्।
पूर्वत्रयानुरूपेण शक्तीनां च {22}समुद्गतम् ।। 31 ।।
31. - - - - - - - - - - - - - -
{21. एवाथ B. E. }
{22. समुद्भवम् A. B. E. }
परादिविभवान्तानां सर्वेषां देवतात्मनाम्।
शुद्धषाड्‌गुण्यरूपाणि वपूंषि त्रिदशेश्वर ।। 32 ।।
32. - - - - - - - - - - - - - -
यावन्त्यस्त्राणि देवानां चक्रशङ्खादिकानि वै।
भूषणानि विचित्राणि वासांसि विविधानि च ।। 33 ।।
33. - - - - - - - - - - - - - -
ध्वजाश्च विविधाकाराः कान्तयश्च सितादिकाः।
वाहनानि विचित्राणि सत्याद्यानि सुरेश्वर ।। 34 ।।
34. - - - - - - - - - - - - - -
शक्तयो भोगदाश्चैव विविधाकारसंस्थिताः।
आन्तःकरणिको वर्गस्तदीया वृत्तयोऽखइलाः ।। 35 ।।
35. - - - - - - - - - - - - - -
यच्च यच्चोपकरणं सामान्यं पुरुषान्तरैः।
षाड्‌गुण्यनिर्मितं विद्धि तत्सर्वं बलसूदन ।। 36 ।।
36. - - - - - - - - - - - - - -
शुद्धसंविन्मयी साहं षाड्‌गुण्यपरिपूरिता।
तथा तथा भवाम्येषामिष्टं यद्धि यथा यथा ।। 37 ।।
37. - - - - - - - - - - - - - -
न विना देवेदेवेन स्थितिर्मम हि विद्यते।
{23}मया विना न देवस्य स्थितिर्विष्णोर्हि{24} विद्यते ।। 38 ।।
38. - - - - - - - - - - - - - - - - -
{23. C. omits this line. }
{24. विष्णोश्च E. I. }
तावावामेकतां प्राप्तौ द्विधा भूतौ च संस्थितौ।
विधां भजावहे तां तां यद्दद्यत्र {25}ह्यपेक्षितम् ।। 39 ।।
39. - - - - - - - - - - - - - -
{25. व्यपेक्षितम् E. I. }
शक्रः---
सिन्धुकन्ये नमस्तुभ्यं नमस्ते सरसीरुहे।
परव्यूहादिभेदेन किं प्रयोजनमीशितुः ।। 40 ।।
40. - - - - - - - - - - -
श्रीः---
{26}अनुग्रहाय {27}जीवानां भक्तानामनुकम्पया।
परव्यूहादिभेदेन देवदेवप्रवृत्तयः ।। 41 ।।
41. - - - - - - - - - - - -
{26. B. omits verses 41 and 42. }
{27. देवानां D. }
शक्रः---
देवदेवप्रिये देवि नमस्ते कमलोद्भवे।
अनुग्रहाय भक्तानामेकैवास्तु विधा हरेः ।। 42 ।।
42. - - - - - - - - - - - -
श्रीः---
{28}जीवानां विविधाः शक्र संचिताः पुण्यसंचयाः।
संचिन्वन्ति न ते जीवास्तुल्यकालं कथंचन ।। 43 ।।
43. - - - - - - - - - - - - - -
{28.जीविनां B. }
कश्चिद्धि सुकृतोन्मेषात् कदाचित् पुरुषो नृषु।
श्रीमता कमलाक्षेण जायमानो निरीक्ष्यते ।। 44 ।।
44. - - - - - - - - - - - -
अन्यदा पुरुषोऽन्यश्चेत्येवं भिन्नाः शुभाशयाः।
भेदोऽधिकारिणां पुण्यतारतम्येन जायते ।। 45 ।।
45. - - - - - - - - - - - -
विवेकः कस्यचिन्मन्दो भगवत्तत्ववेदने।
मद्यमस्तु परस्याथ दिव्योऽन्यस्य तु जायते ।। 46 ।।
46. - - - - - - - - - - - - - -
ईशानुग्रहवैषम्यादेवं भेदे व्यवस्थिते।
तत्तत्कार्यानुरोधेन परव्यूहादिभावना ।। 47 ।।
47. - - - - - - - - - - -
क्रियते देवदेवेन शक्तिं मामधितिष्ठता।
{29}संसिद्धयोगतत्त्वानामधिकारः परात्मनि ।। 48 ।।
48. - - - - - - - - - - - - - -
{29. सुसिद्ध A. C. D. E. G. }
व्यामिश्रयोगयुक्तानां मध्यानां व्यूहभावने।
वैभवीयादिरूपेषु विवेकविधुरात्मनाम् ।। 49 ।।
49. - - - - - - - - - - -
अहंताममातार्तानां{30} भक्तानां परमेश्वरे।
अधिकारस्य वैषम्यं भक्तानामनुदृश्य{31} सः ।। 50 ।।
50. - - - - - - - - - - - - - -
{30. ममताज्ञनां B. }
{31. अधिगम्य F. }
भजते विविधं भावं परव्यूहादिशब्दितम्।
इति ते लेशतः शक्र दर्शिता उभयात्मकाः ।। 51 ।।
51. - - - - - - - - - - - - -
भवद्भावोत्तरा व्यूहा मम नारायणस्य च।
शुद्धे शुद्धेतरस्मिंश्च कोशवर्गे मदुद्भवे ।। 52 ।।
52. - - - - - - - - - - - -
स्थितिर्नौ दर्शिता तेऽद्य पृथक् सह च केवला।
एवंप्रकारां{32} मां ज्ञात्वा प्रत्यक्षां सर्वसंमताम् ।। 53 ।।
53. - - - - - - - - - - - - - -
{32. प्रकारं B. D. E. I. }
उपायैर्विविधैः शश्वदुपास्य विविधात्मिकाम्।
क्लेशकर्माशयातीतो मद्भावं प्रतिपद्यते ।। 54 ।।
54. क्लेशकर्माशया अनन्तराध्याये वक्ष्यन्ते।
इति {33}श्रीपाञ्चरात्रसारे लक्ष्मीतन्त्रे {34}विभवप्रकाशो नाम एकादशोऽध्यायः
{33. श्रीपञ्चरात्र A. I. }
{34. वैभव A. I. }
********इत्येकादशोऽध्यायः********