सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं १.१६

इन्दु - इन्दवः सम्पाद्यताम्

इन्दु और इन्दवः

इस सूक्त का सारांश यह है कि अरिरिन्दानि शब्द का प्रयोग उन चेष्टाप्रदायक प्राणोंदकों के लिए हुआ है, जो एक अतीन्द्रिय नाद से जुड़े हुए हैं, परन्तु जिनको साधना के फलस्वरूप मन द्वारा भी धारण किया जा सकता है। इन्हीं प्राणोदकों के लिए वेद में इन्दवः शब्द भी प्रयुक्त हुआ है, जो प्रायः सोमासः विशेषण से युक्त होकर अथवा अलग से (स्वयं, स्वतन्त्र रूप से) भी सोम बिन्दुओं का वाचक होता है।[13] ये इन्दवः अहंबुद्धि, मन और पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के रूप में कल्पित सप्त सिन्धुओं के पद से सम्बन्धित है, परन्तु इस स्तर पर प्रश्न होता है कि वे अपने मूल अद्वैत रूप (स्वं वव्रिं) को कहां रख देते हैं[14] ? यहां इन्दवः के जिस स्वरूप की ओर संकेत किया गया है, उसी का वाचक एकवचन शब्द इन्दुः है, जिसके अन्तर्गत सभी इन्दवः धी (अतीन्द्रिय बुद्धि) के द्वारा एक ही में संयुक्त कर दिये जाते हैं[15]। इसका अभिप्राय यह है कि इन्दुः शब्द को जब पदनाम कहा जाता है, तो उसका सम्बन्ध दो भिन्न प्रकार के पदों से होता है। इनमें से एक तो अतीन्द्रिय तथा अतिमानिसिक चेतना का स्तर है, जिसमें इन्दुः शब्द एकवचन में प्रयुक्त होता है। इससे भिन्न पद मानसिक स्तर की चेतना है, जहाँ इन्दवः बहुवचन रूप में प्रयुक्त है। एक दूसरे पद अथवा स्तर के सोम को शरीररूपी पुर से सम्बन्ध रखने के कारण ‘पौर’ कहा जाता है, जिसको पीने के लिए जहां इन्द्र से बार-बार आग्रह किया जाता है, वहीं सोम (इन्दु) से इन्द्र को तृप्त करने के लिए प्रार्थना की जाती है।[16] पौर स्तर के इन्दवः मनुष्य व्यक्तित्व के निचले स्तर से उठते हुए ऊपर की ओर जाते हैं। अतः इनको ‘उद्भिदः’ कहा जाता है, जिनके लिए वृषपानासः विशेषण प्रयुक्त होता है, क्योंकि वे जिस इन्द्र के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं, वह ऊपर से आनन्दवृष्टि करने वाला वृषन् इन्द्र है।[17] ये इन्द्रवः नामक प्राणोदक जब ‘सत्पति’ इन्द्र के निवास को पहुंचते हैं, तो वे अपनी धवलता के कारण ‘चन्द्र इन्दव’ कहे जाते हैं।[18] यही वरेण्य सोम है, जिसको उदरस्थ करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना की जाती है और कहा जाता है कि हे इन्द्र! ये इन्दवः द्युलोक के रहने वाले हैं।[19] इस प्रसंग में, इन्द्र से अभिप्राय उस व्यष्टिगत आत्मा से है जो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में बिखरा हुआ रहता है, परन्तु सोपान करने के लिए उसे अपने बिखराव को समेटकर अपने अन्तस्तम में प्रवेश करना पड़ता है। इसीलिए प्रायः इन्द्र को अर्वावत् (अन्नमय) और परावत् (मनोमय) अथवा इन दोनों के अतिरिक्त उनके अन्तर्वर्ती प्राणमय कोश से भी सोमपान के लिए बुलाया जाता है। आत्मा रूपी इन्द्र के अतिमानसिक रूप को बृहस्पति कहा जाता है और दोनों के संयुक्तरूप को इन्दा-बृहस्पति नाम दिया जाता है। ये दोनों ही दिव्य आनन्दरूपी वसु की वर्षा करने वाले होकर जब सोम को पीते हैं तो इन्दवः उनके भीतर प्रवेश कर जाते हैं और तब साधक को ‘सर्ववीर रयि’ प्राप्त होती है।[20] ये इन्द्रवः चारों ओर से खींच कर समेटे जाने के कारण ‘कृष्टयः’ कहलाते हैं, जो ऊर्ध्वमुखी होकर इन्द्र के अतीन्द्रिय स्वरूप को प्राप्त होते हैं।[21 Puranastudy (सम्भाषणम्) ०६:०१, १ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें

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