सम्भाषणम्:ऋग्वेदः सूक्तं ५.४५

अर्णः, आपः और प्राणोदक सम्पाद्यताम्

आ सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्णो अयुक्त यद्धरितो वीतपृष्ठाः। उद्ना न नावमनयन्त धीरा आशृण्वतीरापो अर्वागतिष्ठन्।। ऋ ५, ४५,१०

अर्णः, आपः और प्राणोदक :- यहां जिस शुक्र अर्ण पर सूर्य को आरोहण करते हुए बताया गया है, उसी को पूर्वोक्त आदित्यवाचक उद कहा जा सकता है, जो कि उदान शब्द के मूल में हैं। अर्णः के विपरीत, इसी मन्त्र में आपः का भी उल्लेख है, जिनको अर्वाक् स्थित बताया गया है। इसका अर्थ है कि जहां उच्चतर स्तर पर व्याप्त प्राणों को शुक्र अर्णः कहा गया है, वहां व्यापनशील अर्वाक् प्राणों को आपः कहा गया है। इस विषय में एक बड़ी रोचक बात ऋ० १,१०४,३ में मिलती है[51] । वहां केतवेदा को ऊर्ध्व साँस लेते हुए (उदन्) अपनी आत्मा द्वारा फेन भरने वाला बताया गया है। इसके फलस्वरूप उत्पन्न क्षीर से वह स्नान करता है, तो कुयव नामक असुर की दो स्त्रियों का निधन हो जाता है और वे दोनों निम्नगामी शिफा (नदी) में गिर जाती हैं। यहां जिस क्षीर से केतवेदा को स्नान किये हुए बताया जाता है, वह भी उदकनामों की सूची में आता है। केतवेदा का अर्थ है, जिसने वेद को जान लिया है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षीर उस प्राणशक्ति का वाचक है, जो केतवेदा को प्राप्त होती है, सम्भवतः केतवेदा के क्षीरस्नान के पश्चात् कुयव नाम असुर की जिन दो स्त्रियों का उल्लेख है, वह अहंकार की अस्मिता और ममता नामक दो शक्तियां हैं, जो केतवेदा के क्षीर स्नान के पश्चात् तिरोहित हो जाती हैं। इस मन्त्र के केतवेदा को ही इससे अगले मन्त्र[52] में उपर - आयुः कहा गया है, जिसकी नाभि को छिपा हआ बताया गया है, क्योंकि वह पूर्ववती प्राणोदकों से प्रवृद्ध हो चुका है और जिसकी अन्जसी, कुलिशी तथा वीरपत्नी नामक शक्तियां पयः नामक आदित्य प्राणों से भरपूर हो रही हैं। इस वर्णन से ऐसा लगता है कि यहां जिनके लिए ‘पूर्व’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, वे पूर्वोक्त अर्वाक् ‘आपः’ हैं और जिनके लिए ‘उद’ शब्द का यहां प्रयोग हुआ है, उनसे पूर्वोक्त ‘अर्णः’ नामक प्राणोदक अभिप्रेत हैं और इसी से सम्बधित प्राणोदक के दूसरे रूप का संकेत पयः शब्द करता है, जो स्वयं भी उदकनामों में परिगणित है। हम देख चुके हैं कि अर्ण नामक उदक पर सूर्य आरूढ होता है। अतः जब इन्द्र से प्रार्थना की जाती है कि तुम हमें सूर्य और आपः दोनों में भागीदार बनाओ[53] , तो तात्पर्य यही होता है कि अर्णः और आपः दोनों ही वाञ्छनीय समझे गये हैं। इसलिए यह समझना भूल होगी कि अर्वाक् प्रदेश अथवा उसके आपः कोई निम्नकोटि की वस्तु हैं। वास्तव में अर्वाक् से अभिप्राय साधक के उस बहिर्मुखी व्यक्तित्व से है जहां वह अपने श्रद्धासिक्त हृदय में भगवत-प्रेत रूपी सोम (इन्दु) का सवन करके, अपने भगवान् को उसका पान करने के लिए बुलाता है :-

अर्वाङेहि सोमकामं त्वाहुरयं सुतस्तस्य पिबा मदाय । उरुव्यचा जठर आ वृषस्व पितेव नः शृणुहि हूयमानः ॥ ऋ १,१०४,९

दूसरे शब्दों में, जो अर्ण अथवा सलिल कहा जाता है, वही जब अर्वाक् गति ग्रहण करके धाराओं का रूप ग्रहण करता है तो उसके लिए आपः जैसे बहुवचन शब्दों का प्रयोग होता है। सारांश रूप में यह कह सकते हैं कि उक्त अर्ण अथवा सलिल प्राणरूपी उदक की ऊर्ध्वगति का परिणाम हैं, क्योंकि इसके फलस्वरूप प्राणोदक के बहिर्मुखी प्रवाह अन्तर्मुखी होते हुए अपनी नानात्व को अन्ततोगत्वा सलिलं के एकत्व में विलीन कर देते हैं। प्राणोदक की इस प्राक् गति का प्रारम्भ और प्रेरणा मनुष्य-व्यक्तित्व के अहि गोपा और दासपत्नी कहें जाने वाले प्राणों में अहंकार रूपी वृत्र के बन्धन से निकल भागने की इच्छा का परिणाम है। अतः मूलतः उदक शब्द उन प्राणों का प्रतीक है, जो वृत्र से ऋस्त होकर मानुषी त्रिलोकी के ऊपर जाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। यही साधना का प्रारम्भ है। जो सर्वप्रथम प्राणायाम या ध्यान के साधारण प्रयास में देखा जा सकता है। जैसा कि गीता में कहा है कि इस प्रकार का प्रयास व्यर्थ नहीं जाता और इसका थोड़ा-सा भी अभ्यास हमें महान् भय से बचाने में समर्थ होता है। इस प्रकार के निरन्तर अभ्यास से जीवात्मा में अहंकार के बन्धन से मुक्त होने की अभिलाषा बढ़ती हुई अन्त में उसे अपने दिव्य स्वरूप का बोध कराकर एक नया जन्म दे देती है। यही इन्द्र-जन्म है। इसके साथ ही दिव्य प्राण रूपी आपः की वर्षा करने वाले उस पर्जन्य का निर्माण होता है जिसे योग की धर्ममेघ समाधि कहा जा सकता है। पर्जन्य- वृष्टि के फलस्वरूप जिन प्राणों की वर्षा होती है, वही सप्त आपः अथवा सप्त सिन्धवः कहे जाते हैं। यही वे आपः हैं, जिन्हें ऋग्वेद में सलिल के मध्य से प्रवाहित होता हुआ बताया गया है। ये अर्वाक् गति करने वाले प्राण हैं, जिनका अवतरण पूर्वोक्त उन ऊर्ध्वगामी प्राणों के प्रवाह का परिणाम है, जिनको उदक, उदन् या उदान कहा जा सकता है। तात्विक दृष्टि से प्राक् और अर्वाक् गति करने वाले प्राणरूपी उदक वस्तुतः एक ही हैं, इसी दृष्टि से उदक शब्द उन सभी प्रकार के प्राणों का प्रतीक बन गया, जो ऊर्ध्वगामी और अधोगामी प्राणों के विविध रूपों के द्योतक हो सकते हैं। अतएव हम उदकनामों में जिस मूलभूत प्राणतत्व को निहित पाते हैं, उसके लिए प्राणोदक शब्द का प्रयोग सुसंगत लगता है। यद्यपि उन नामों में आपः शब्द मूलतः ‘आपो देवीः’ का द्योतक होने के कारण साधना की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण समझा गया है, क्योंकि इनके अवतरण पर ही वृत्रवध तथा उसकी सभी समसामयिक घटनाएं अवलम्बित हैं, फिर इनके अवतरण का श्रेय जिस पर्जन्य को दिया जायेगा, वह वस्तुतः प्राणों की उस उदंचनशीलता का ही परिणाम है, जिसके कारण प्राणोदक नाम से ही आगे प्राणतत्व की व्यापकता पर विचार करने जा रहे हैं। Puranastudy (सम्भाषणम्) ०२:४७, ३० एप्रिल् २०२४ (UTC)उत्तर दें

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