पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४८

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२६ (पर्यायवाचकैः शब्दैस्तत्वमाद्यमनुत्तमम् । व्याख्यातं तस्वभावजैरेवं सद्भाचचिन्तकैः ।४५ महामुष्टिं विकुरुते चोद्यमानः सिसृक्षया संकल्पोऽध्यवसायश्चतस्य धृतिद्वयं स्मृतम् ।४६ धर्मादीने च रूपाणि लोकतत्त्वार्थहेतवः । त्रिगुणस्तु स विज्ञेयः सर्वराजसतामसः ।४७ त्रिगुणाद्रजसोद्रिक्तादहंकारस्ततोऽभत् । महता चाऽऽवृतः सगं भूतादिर्विकृतस्तु सः ।४८ तस्माच्च तमसोद्रिक्तादहंकारादजायत । भूततन्मात्रसर्गस्तु भूतादिस्तामसस्तु सः ।४६ भूतादिस्तु विकुर्वाणः शब्दमात्रं ससर्ज ह । (‘आकाशं शुषिरं तस्मादुद्रिक्तं शब्दलक्षणम् ॥५० आकशं शब्दमात्रं तु भूताश्चाऽऽवृणपुनः । शब्दम।त्रं तदाकाशे स्पर्शमात्रं ससर्ज ह ॥५१

  • चलचञ्जायते वायुः स वै स्पर्शगुणो मतः । आकाशं शब्दमात्रं तु स्पर्शमात्रं समावृणोत् ॥५२

वायुश्चापि विकुर्वाणो रूपमात्रं ससर्ज ह । ज्योतिरुत्पद्यते वायोस्तदूपगुणमुच्यते ॥५३ स्पर्शमात्रं तु वै वयो रूपमात्रं समाशृणोत् । ज्योतिश्चापि विकुर्वाणं रसमात्रं ससर्ज ह ।५४ संभवन्ति ततो ह्यापः पश्चात्तापै रसात्मिकाः । रसमात्रस्तु ता ह्यापो रूपमात्राभिरावृणोत् ॥५५ आपो रसान्विकुर्वत्यो गन्धमात्रं ससर्जिरे । संघातो जायते तस्मातस्य गन्धो गुणः स्मृतः५६ सभावों के चिन्तन करने वालों तथा तत्त्वों के भाव जानने वालों ने अनुत्तम आद्य तत्त्व को इस प्रकार व्याख्या पर्यायवाची शब्दों से की है । सर्ग की इच्छा से प्रेरित होने पर महान् सृष्टि करता है । संकल्प तथा अध्यवसाय इसकी दो वृत्तियाँ हैं । लोकों के तत्त्व पदार्थ के हेतु धर्म आदि इसके रूप हैं तथा यह सात्विक, राजस एवं तामस रूप से त्रिगुण है ऐसा जानना चाहिये ।०५-४७त्रिगुण में रजोगुण की अधिकता से अहङ्कार उत्पन्न हुआ, वह महान् से आवृत, आदि धृत और विकृत था यह सृष्टि महत्तत्व से रुकी थी । उस तमोबहुल अहङ्कार से भूततन्मात्र की सृष्टि हुई । वह भूतादि अहंकार तामस ही तो है । भूतादि के विकृत होने पर शब्द तन्मात्रा की सृष्टि हुई और उससे शब्द लक्षण वाला महाविवर आकाश उत्पन्न ४८-.०। फिर भूतादि हुआ ।अहंकार ने शब्द मात्र आकाश को ढक लिया और उस शब्दमात्र आकाश ने स्पर्शतन्मात्रा की सृष्टि की । उससे बलवान् वायु उत्पन्न हुआ उसका गुण स्पर्श है । शब्दमात्र आकाश ने स्पर्शमात्र को ढक लिया। वायु ने विकृत होकर रूप तन्मात्रा की सृष्टि की । वायु से ज्योति की उत्पत्ति होती है । ज्योति का गुण रूप कहा जाता है। वायु की स्पर्शतन्मात्रा को रूपतन्मात्रा ने आच्छादित कर लिया । ज्योति से की उत्पत्ति फिर की विकृति रस तन्मात्रा हुई ।५१५४ तत्पश्चात् ताप से रसमय जल की सृष्टि होती है। जल की यह तन्मात्रा भी रूपतन्मात्रा से आवृत होती है । जलीय रसमात्र की विकृति से गन्धमात्रा का उद्भव हुआ। इसी से संघात (पृथ्वी) होता है उसका गुण गन्ध है । रसमात्रा वाला तोय गन्ध मात्रा को भूतों में ढके । उन उन भूतों में वह वह रहा -घनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्यः ख• पुस्तके नास्ति । *इदमर्घ ङ. पुस्तके नास्ति ।