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रसमात्रं तु तत्तोयं गन्धमात्रं समावृणोत् । तस्मिस्तस्मिस्तु तन्मात्रा तेन तन्मात्रता स्मृता ॥५७ अविशेषवाचकत्वादविशेषस्ततः स्मृताः । अशान्तघोरमूढत्वादविशेषास्ततः पुनः ॥५८ भूततन्मात्रसर्गोऽयं विज्ञेयस्तु परस्परात् । वैकारिकादहंकारात्सत्वोद्रिक्तातु सात्त्विकात् (५६ वैकारिकः स सर्गस्तु युगपत्संप्रवर्तते । बुद्धीन्द्रिाणि पञ्चैव पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि ॥६० साधकानीन्द्रियाणि स्युर्देवा वैकारिका दश। एकादशं मनस्तथा देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥६१ श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी । शब्दादीनामचाप्यर्थ बुद्धियुक्तानि वक्ष्यते ॥६२ पादौ पायुरुपस्थश्च हस्तौ वाग्दशमं भवेत् । गतिविंसग ह्यानन्दः शिल्पं वाक्यं च कर्म च । ६३ आकाशं शब्दमात्रं च स्पर्शमात्रं समाविशत् । द्विगुणस्तु ततो वायुः शब्दस्पर्शात्मकोऽभवत्॥६४ रूपं तथैव विशतः शब्दस्पर्शगुणावुभौ। त्रिगुणस्तु ततश्चाग्निः स शब्दस्पर्शरूपवान् ॥६५ स शब्दस्पर्शरूपश्च रसमात्रं समावेशत् । तस्माच्चतुर्गुणा ह्यापो (चेचेयास्ता रसात्मिकाः ॥६६ स शब्दस्पर्शरूपेषु गन्धस्तेषु समाविशत् । संयुक्त गन्धमात्रेण आचिन्चन्तो महीमिमाम् ॥६७ तस्मात्पञ्चगुणा भूमिः स्थूलभूतेषु दृश्यते । शान्ताि घोराश्च मूढाश्च विशेषास्तेन ते स्मृताः ॥६८ परस्परानुप्रवेशाद्धारयन्ति परस्परम् । भूमेरन्तसित्वदं सर्वं लोकालोकघनावृतम् ॥६६ विशेषा इन्द्रियग्राह्या नियतत्वाच्च ते स्मृताः । गुणं पूर्वस्य पूर्वस्य प्राप्नुवन्त्युत्तरोत्तरम् ॥७० (शब्द आदि) मात्रा रहती हैं इसलिये तन्मात्रा नाम पड़ा। नाम अविशेष होने तथा शान्त घोर एवं फिर मूड़ न होने के कारण इन तन्मात्राओ को अविशेष कहते है ।५५५८। इन भूतो ओर तन्मात्राओ की सृष्टि को पारस्परिक समझना चाहिये । अन्य सात्विक वैकारिक अहंकार से सत्त्व के उद्रेक के कारण वैकारिक सृष्टि एक साथ प्रवृत्त होती है । पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। साधक या करण का नाम इन्द्रिय है । ये दश वैकारिक देव है। ग्यारहवाँ मन भी वैकारिक देव ही है । श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा एवं पाँववी नासिका ये शब्द आदि की प्राप्ति या बोध के निमित्त है। इन्हें ज्ञानेन्द्रिय कहते है । दोनो पादगुदा, लिग, दोनों हाथ तथा दसवी इन्द्रिय वाणी है । इनके कर्मगति, विसर्ग आनन्द, शिल्प तथा वाक्य है । शव्द मात्र आकाश ने स्पर्श मात्र मे प्रवेश किया अतएव वायु शब्द एवं स्पर्श दो गुणो वाला हुआ ॥५६-६४ वैसे ही शव्द तथा स्पर्श ये दोनो गुण रूप में आविष्ट हुए और उससे शब्दस्पर्श तथा रूप इन तीनो गुणों वाली अग्नि हुई । शब्द, स्पर्श एवं रूप फिर रसमात्र में समाविष्ट हुए और उनसे चारों गुणो वाला रसमय जल हुआ । इन गुणो से गन्ध संयुक्त हुआ और उससे यह पृथ्वी उत्पन्न हुई । इसीलिये स्यूल भूतों में पृथिवी पाँच गुणों वाली दीखती है । इसी हेतु ये स्थूल भूत शान्त घोर तथा मूढ़ और विशेष कहे गये हैं ।६५६८एक दूसरे में प्रविष्ट होने के कारण ये एक दूसरे को धारण करते है । यह सब केवल लोकालोक से सम्पूर्णतया आच्छन्न भूमि के भीतर है । इन्द्रिय ग्राह्य तथा नियत होने के कारण ये विशेष कहलाते है । पूर्व-पूर्व के गुण उत्तर उत्तर में मिलते हैं ।६५-७०॥