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भाषाटीकासहिता। 91

रह सकेगा ? तिसका समाधान करते हैं, कि शरीर इंद्रि- यादिसे किया हुआ कोई कर्म आत्माका नहीं हो सकता है, इस प्रकार विचार कर जो कर्म करना पडता है उस कर्मको अहंकाररहित करके मैं आत्मस्वरूपके विषे सुखपूर्वक स्थित हूं ॥३॥

कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्धभावा देहस्थयोगिनः।

संयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम्॥४॥

अन्वयः-कर्मनैष्कर्म्यनिर्वन्धभावाः देहस्ययोगिनः (भवन्ति ) अहम् (तु ) संयोगायोगविरहात् यथासुखम् आसे ॥ ४ ॥

तहां वादी शंका करता है कि, या कर्ममार्गमें निष्ठा करे या निष्कर्ममार्गमेंही निष्ठा करे एकसाथ दोनों मार्गोंपर चलना किस प्रकार हो सकेगा ? तहां कहते हैं, कर्म और निष्कर्म तौ देहका अभिमान करनेवाले योगीकोही होते हैं और मैं तो देहके संयोग और वियोग दोनोंको त्यागकर सुखरूप स्थित हूं ॥४॥

अर्थानौँ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा।

तिष्ठन् गच्छन् स्वपन तस्मादहमासे यथासुखम् ॥५॥

अन्वयः-स्थित्या गत्या (च) मे अर्थानौँ न वा शयनेन (च) न तस्मात् तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् यथासुखम् आसे ॥५॥