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९२ अष्टावक्रगीता।

लौकिक व्यवहारके विषेभी मेरेको अभिमान नहीं है, क्योंकि स्थिति, गति तथा शयन आदिसे मेरा कोई हानि, लाभ नहीं होता है, इस कारण मैं खडा रहूं वा चलता रहूं अथवा शयन करता रहूं तो उसमें मेरी आसक्ति नहीं होती है, क्योंकि मैं तो सुखपूर्वक आत्म- स्वरूपके विर्षे स्थित हूं ॥५॥

स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न-वा।

नाशोल्लासौ विहायास्मादहमासे यथा-सुखम् ॥६॥

अन्वयः-मे स्वपतः हानिः न अस्ति यत्नवतः वा सिद्धिः न (अस्ति); अस्मात् नाशोल्लासौ विहाय अहम् यथासुखम् आसे॥६॥

संपूर्ण प्रयत्नोंको त्याग करके शयन करूं तो मेरी किसी प्रकारकी हानि नहीं है और अनेक प्रकारके उद्यम करूं तो मेरा किसी प्रकारका लाभ नहीं है, इस कारण त्याग और संग्रहको छोडकर मैं सुखपूर्वक आत्मस्वरू- पके विषं स्थित हूं ॥६॥

सुखादिरूपानियमं भावेष्वालोक्यभूरिशः ।

शुभाशुभेविहायास्मादहमासेयथासुखम् ७॥

अन्वयः-मावेषु भूरिशः सुखादिरूपानियमम् आलोक्य अस्मात् अहम् शुभाशुभे विहाय यथासुखम् आसे ॥ ७॥