भाषाटीकासहिता। ९३
भाव जो जन्म तिनके विषे अनेक स्थानोंमें सुख- दुःखादि धर्मोकी अनित्यताको देखकर और इस कारण- ही शुभ और अशुभ कर्मोको त्यागकर मैं सुखपूर्वक आत्मस्वरूपके विर्षे स्थित हूं ॥७॥
इति श्रीमदष्टावक्रानिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं यथासुखसप्तकं नाम त्रयोदशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १३॥
अथ चतुर्दशं प्रकरणम् १४.
प्रकृत्या शून्यचित्तोयःप्रमादाद्भावभावनः ॥
निद्रितोबोधित इव क्षीणसंसरणो हि सः १॥
अन्वयः-प्रकृत्या शून्यचित्तः प्रमादात् भावभावनः यः निद्रितः इव बोधितः ( भवति ) सः हि क्षीणसंसरणः ॥ १॥
अब शिष्य अपनी सुखरूप अवस्थाका वर्णन करता है कि, अपने स्वभावसे तो चित्तके धर्मोसे रहित है और बुद्धिके द्वारा प्रारब्धकमोंके वशीभूत होकर अज्ञानके कारण संकल्पविकल्पकी भावना करता है, जिस प्रकार कोई पुरुष सुखपूर्वक शयन करता होय उसको कोई पुरुष जगाकर काम करावे तो वह काम उस पुरुषके मनकी इच्छाके अनुसार नहीं होता है, किंतु अन्य