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९६ अष्टावक्रगीता।

अन्वयः-सत्वबुद्धिमान (शिष्यः ) यथा तथा उपदेशेन कृतार्थः ( भवति ), परः आजीवम् जिज्ञासुः अपि तत्र विमुह्यति ॥ १ ॥

यद्यपि गुरुने शिष्यके अर्थ पहिले आत्मतत्वका उपदेश किया है तथा शास्त्रमें ऐसा नियम है कि, कठि- नसे जानने योग्य होनेके कारण शिष्योंके अर्थ आत्म- तत्वका वारंवार उपदेश करना चाहिये और छान्दोग्य उप- निषद्के विषे गुरुने शिष्यके अर्थ वारंवार आत्मतत्वका उपदेश किया है, इस कारण गुरु फिरभी शिष्यके अर्थ आत्मतत्वका उपदेश करते हुए प्रथम ज्ञानके अधिकारी और अनधिकारीका वर्णन करते हैं कि, जिसकी बुद्धि सात्विकी होती है वह शिष्य यथाकथंचित् उपदेश श्रवण करकेभी कृतार्थ हो जाता है, इस कारणही सत्ययुगके विषे केवल एक अक्षर ब्रह्म जो ॐ कार तिसकेही उप- देशमात्रसे अनेक शिष्य कृतार्थ होगये अर्थात् ज्ञानको प्राप्त होगये और जिनकी तामसी बुद्धि होती है, उनको मरणपर्यंत उपदेश करो तवभी उनको आत्मस्वरूपका ज्ञान नहीं होता है, किंतु महामोहमें पडे रहते हैं, प्रह्ला- दजीका पुत्र विरोचन दैत्य था उनको ब्रह्माजीने अनेक वार उपदेश किया, तोभी वह महामोहयुक्तही रहा, क्योंकि वह तामसी बुद्धिवाला था ॥१॥

मोक्षो विषयवैरस्य बन्धो वैषयिको रसः ।

एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु ॥२॥