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९८ अष्टावक्रगीता।

न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान् ।

चिद्रूपोऽसि सदा साक्षीनिरपेक्षः सुखं चर॥४॥

अन्वयः-हे शिष्य ! त्वम् देहः न, ( तथा ) ते देहः न, भवान् कर्ता वा भोक्ता न, ( यतः ) ( भवान् ) चिद्रूपः सदा साक्षी असि, ( अतः ) निरपेक्षः ( सन् ) सुखं चर ॥ ४ ॥

अब तत्वज्ञानकी प्राप्तिके अर्थ उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! तू देहरूप नहीं है तथा तेरा देह नहीं है क्योंकि तू चैतन्यरूप है तिसी प्रकार तू कर्मोंका करने- वाला तथा कर्मफलका भोगनेवाला नहीं है, क्योंकि कर्म करना और फल भोगना यह मन और बुद्धिके धर्म हैं और तू तो मन और बुद्धिसे भिन्न साक्षीमात्र इस प्रकार है जिस प्रकार घटका देखनेवाला घटसे भिन्न होता है, इस कारण हे शिष्य ! देहके संबंधी जोस्त्रीपुत्रादि तिनसे उदासीन होकर सुखपूर्वक विचर ॥४॥

रागद्वेषौ मनोधर्मों न मनस्ते कदाचन ।

निर्विकल्पोऽसि बोधात्मानिर्विकारः सुखं चर ॥५॥

अन्वयः-रागद्वेषौ मनोधर्मी (भवतः) मनः ते ( सम्बन्धि ) कदाचन न ( भवति ), (यतः त्वम् ) निर्विकल्पः बोधात्मा असि, ( अतः ) निर्विकारः ( सन् ) सुखं चर ॥ ५ ॥