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१०० अष्टावक्रगीता।

है, इस कारण हे चैतन्यरूप शिष्य ! तू संपूर्ण सन्ताप- रहित हो ॥७॥

श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः।

ज्ञानस्वरूपोभगवानात्मा त्वं प्रकृतेःपरः॥८॥

अन्वयः-भोः तात ! श्रद्वस्व श्रद्धस्व, अत्र मोहम् न कुरुष्व (यतः) त्वम् ज्ञानस्वरूपः भगवान् प्रकृतेः परः आत्मा (असि)॥८

हे तात ! गुरु और वेदान्तके वचनोंपर विश्वास कर, विश्वास कर, आत्माकी चेतनस्वरूपताके विषयमें मोह कहिये संशयविपर्ययस्वरूप अज्ञान मत कर, क्योंकि तू ज्ञानस्वरूप, सर्वशक्तिमान, प्रकृतिसे पर आत्म- स्वरूप है ॥८॥

गुणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च ।

आत्मा न गन्ता नागन्ता किमेनमनुशोचसि॥९॥

अन्वयः-गुणैः संवोष्टतः देहः तिष्ठति आयाति याति च आत्मा न गन्ता न आगन्ता ( अतः) एनम् किम् अनुशोचसि ॥ ९॥

गुण कहिये इंद्रिय आदिसे वेष्टित देहही संसारके विर्षे रहता है, आता है और जाता है और आत्मा तो न जाता न आता है, इस कारण मैं जाऊंगा, मेरा मरण होगा इत्यादि देहके धर्मोंसे आत्माके विषे शोक मत कर, क्योंकि आत्मा तो सर्वव्यापी और नित्यस्वरूप है॥९॥