पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/११५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

भाषाटीकासहिता। १०३

अन्वयः-यत् त्वम् पश्यसि तत्र त्वम् एव एकः प्रतिभाससे; कटकाङ्गदनूपुरम् किम् स्वर्णात् पृथक् भासते ॥ १४॥

जिस प्रकार कटक, बाजूबंद और नूपुर आदि आभू- षणोंके विषे एकसुवर्णही भासता है, तिसी प्रकार जिस २ कार्यको तू देखता है तिस २ कार्यके विषे एक कारण स्वरूप तूही (आत्माही ) भासता है ॥१४॥

अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति सन्त्यज।

सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:संकल्पःसुखीभव ॥१५॥

अन्वयः-सः अयम् अहम्, अयम् अहम् न इति विभागम् संत्यज, (तथा ) सर्वम् आत्मा इति निश्चित्य निःसंकल्पः (सन् ) सुखी भव ॥ १५॥

यह जो संपूर्ण देह आदि पदार्थ हैं तिनका मैं साक्षी हूं और मैं देह, इंद्रिय आदिरूप नहीं हूं अथवा यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, इस भेदका त्याग कर और संपूर्ण जगत् आत्माही है ऐसा निश्चय करके, सम्पूर्ण संकल्प विकल्पोंको त्यागकर सुखी हो ॥१५॥

तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।

त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नसंसारीच कश्चन ।। १६॥