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भाषाटीकासहिता। १०७

अनेक वार श्रवण कर परंतु सबको भूले विना अर्थात् संपूर्ण वस्तुके भेदका त्याग किये विना स्वस्थता अर्थात मुक्ति कदापि नहीं होगी किंतु संपूर्ण वस्तुओंमें भेद दृष्टिका त्याग करनेसेही मोक्ष होगा। तहां शिष्य शंका करता है कि, सुषुप्ति अवस्थाके विषे किसी वस्तुकाभी भान नहीं होता है इस कारण सुषुप्ति अवस्थामें संपूर्ण प्राणियोंका मोक्ष हो जाना चाहिये। इस शंकाका गुरु समाधान करते हैं कि सुषुप्तिमें संपूर्ण वस्तुओंका भान तो नहीं रहता है परंतु एक अज्ञानका भान तो रहता है, इस कारण मोक्ष नहीं होता है और जीवन्मुक्तका तो अज्ञानसहित जगन्मात्रका ज्ञान नहीं रहता है, इस कारण उसका मुक्ति हुइहा समझना चाहिय।।१।।

भोगं कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते।

चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थरोचयिष्यति॥२॥

अन्वयः-हे विज्ञ ! ( त्वम् ) भोगम् कर्म वा समाधिम् कुरु तथापि ते चित्तम् अत्यर्थम् निरस्तसर्वाशम् रोचयिष्यति ॥२॥

हे शिष्य ! तू ज्ञानसंपन्न होकर विषयभोग कर अथवा सकाम कर्म कर अथवा समाधिको कर तथापि संपूर्ण वस्तुओंके विस्मरणसे सब प्रकारकी आशासे रहित तेरा चित्त आत्मस्करूपके विही अधिक रुचिको उत्पन्न करेगा ॥२॥