११० अष्टावक्रगीता।
अप्राप्त वस्तुके मिलनेकी इच्छा नहीं करता है इस कारण जीवन्मुक्त पुरुष विरक्त और रागी दोनोंसे विलक्षण होता है ॥६॥
हेयोपादेयता तावत्संसारविटपांकुरः। स्टहा जीवति याव? निर्विचारदशास्पदम्॥
अन्वयः-निर्विचारदशास्पदम् स्पृहा यावत् जीवति तावत् वै हेयोपादेयता संसारविटपांकुरः ( भवति ) ॥ ७ ॥
-तहां शंका होती है कि, ज्ञानियोंके विषं तो त्याग और ग्रहणका व्यवहार देखनेमें आता है । तहां कहते हैं कि जिस समयपर्यंत अज्ञानदशाके निवास करनेका स्थानरूप इच्छा रहती है तिस समयपर्यंतही पुरुषका ग्रहण करना और त्यागनारूप संसाररूपी वृक्षका अंकुर रहता है और ज्ञानियोंका तो इच्छा न होनेके कारण त्यागना और ग्रहण करना देखने मात्र होते हैं ॥७॥
प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।
निर्द्वन्द्रो बालवद्वीमानेवमेव व्यवस्थितः॥८॥
अन्वयः-हि प्रवृत्तौ रागः, निवृत्तौ एव द्वेषः जायते ( अतः) धीमान् बालवत् निईन्द्रः ( सन् ) एवम् एव व्यवस्थितः भवेत् ८
यदि विषयों में प्रीति करे तो प्रीति दिनपर दिन बढती जाती है और विषयोंसे द्वेषपूर्वक निवृत्त होय