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भाषाटीकासहिता। १११

तो दिनपर दिन विषयोंमें द्वेष होता जाता है; इस कारण ज्ञानी पुरुष शुभ और अशुभके विचाररहित जो बालक तिसकी समान रागद्वेषरहित होकर संगपूर्वक जो विष- योंमें प्रवृत्ति करना और द्वेषपूर्वक जो विषयोंसे निवृत्त होना इन दोनोंसे रहित होकर रहे और प्रारब्धकर्मानु- सार जो प्राप्त होय उसमें प्रवृत्त होय और अप्राप्तिकी इच्छा न करे ॥८॥

हातुमिच्छति संसारं रागीदुःखजिहासया।

वीतरागोहि निर्मुक्तस्तस्मिन्नपि न खिद्यति ॥९॥

अन्वयः-रागी दुःखजिहासया संसारम् हातुम् इच्छति; हि वीतरागः निर्मुक्तः ( सन् ) तस्मिन् अपि न खिद्यति ॥ ९ ॥

जो विषयासक्त पुरुष है वह अत्यंत दुःख भोगनेके अनंतर, दुःखोंके दूर होनेकी इच्छा करके संसारको त्याग करनेकी इच्छा करता है और जो वैराग्यवान् पुरुष है वह दुःखोंसे रहित हुआ संसारमें रहकरभी खेदको नहीं प्राप्त होता है ॥९॥

यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा ।

न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ ॥१०॥